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________________ 292 जैनदर्शन होती है। जैसे प्रकाश अन्धकारको हटाकर पदार्थोंको प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान अज्ञानको हटाकर पदार्थोंका बोध कराता है / अज्ञानकी निवृत्ति और पदार्थोंका ज्ञान ये दो पृथक् चीजें नहीं हैं और न इनमें काल-भेद ही है, ये तो एक ही सिक्केके दो पहलू हैं / पदार्थबोधके बाद होनेवाला हान हेयका त्याग, उपादान और उपेक्षाबुद्धि प्रमाणके परम्परा फल हैं / मति आदि ज्ञानोंमें हान, उपादान और उपेक्षा तीनों बुद्धियाँ फल होती हैं, पर केवलज्ञान' का फल केवल उपेक्षाबुद्धि ही है। राग और द्वेषमें चित्तका प्रणिधान नहीं होना, उपेक्षा कहलाती है / चूंकि केवलज्ञानी वीतरागी हैं, अतः उनके रागद्वेषमूलक हान और उपादान बुद्धि नहीं हो सकती। जैन परम्परामें ज्ञान आत्माका अभिन्न गुण है। इसी ज्ञानकी पूर्व अवस्था प्रमाण कहलाती है और उत्तर अवस्था फल / जो ज्ञानधारा अनेक ज्ञानक्षणोंमें व्याप्त रहती है, उस ज्ञानधाराका पूर्वक्षण साधकतम होनेसे प्रमाण होता है और उत्तरक्षण साध्य होनेसे फल / 'अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा और हानादिबुद्धि' इस धारामें अवग्रह केवल प्रमाण ही है और हानादिबुद्धि केवल फल ही, परन्तु ईहासे धारणा पर्यन्त ज्ञान पूर्वको अपेक्षा फल होकर भी अपने उत्तरकार्यकी अपेक्षा प्रमाण भी हो जाते हैं / 2 एक ही आत्माका ज्ञानव्यापार जब ज्ञेयोन्मुख होता है तब वह प्रमाण कहा जाता है और जब उसके द्वारा अज्ञाननिवृत्ति या अर्थप्रकाश होता है तब वह फल कहलाता है। ___3नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य आदि इन्द्रियको प्रमाण मानकर इन्द्रियव्यापार, सन्निकर्ष, आलोचनाज्ञान, विशेषणज्ञान, विशेष्यज्ञान, हान, उपादान आदि बुद्धि तककी धारामें इन्द्रियको प्रमाण ही मानते हैं और हानोपादान आदि बद्धिको फल ही। बीचके इन्द्रियव्यापार और सन्निकर्ष आदिको पूर्व पूर्वकी अपेक्षा फल और उत्तर उत्तरकी अपेक्षा प्रमाण स्वीकार करते हैं / प्रश्न इतना ही है कि जब प्रमाणका कार्य अज्ञानकी निवृत्ति करना है तब उस कार्यके लिए इन्द्रिय, इन्द्रियव्यापार और सन्निकर्ष, जो कि अचेतन हैं, कैसे उपयुक्त हो सकते हैं / चेतन प्रमा साधकतम तो ज्ञान ही हो सकता है, अज्ञान नहीं। अतः सविकल्पक ज्ञानसे ही 1. 'उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः / पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ॥'-आप्तमी० श्लो० 102 / 2. पूर्वपूर्वप्रमाणत्वे फलं स्यादुत्तरोत्तरम् ।'-लघी० श्लो० 7 / 3. देखो, न्यायमा० 1 / 1 / 3 / प्रश० कन्दली पृ० 198-66 / मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० 59-73 / सांख्यतत्त्वकौ० श्लो० 4 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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