________________ प्रमाणमीमांसा 289 अर्थ कारण नहीं : जैन दार्शनिकोंमें सर्वप्रथम अकलंकदेवने उक्त विचारोंकी आलोचना करते हुए ज्ञानके प्रति मन और इन्द्रियकी कारणताका सिद्धान्त स्थिर किया है। जो कि परम्परागत जैनमान्यता का दिग्दर्शन मात्र है। वे अर्थ और आलोकको कारणताका अपनी अन्तरङ्ग सूक्ष्म दृष्टिसे निरास करते हैं कि ज्ञान अर्थका कार्य नहीं हो सकता; क्योंकि ज्ञान तो मात्र इतना ही जानता है कि 'यह अमुक अर्थ है।' वह यह नहीं जानता कि 'मैं इस अर्थसे उत्पन्न हुआ हूँ।' यदि ज्ञान स्वयं यह जानता होता तो विवादको गुञ्जाइश ही नहीं थी। इन्द्रियादिसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अर्थके परिच्छेदमें व्यापार करता है और अपने उत्पादक इन्द्रियादि कारणोंकी सूचना भी करता है। ज्ञानका अर्थके साथ जब निश्चित अन्वय और व्यतिरेक नहीं है, तब उसके साथ ज्ञानका कार्यकारणभाव स्थिर नहीं किया जा सकता। संशय और विपर्यय ज्ञान अपने विषयभूत पदार्थों के अभावमें भी इन्द्रियदोष आदिसे उत्पन्न होते हैं। पदार्थों के बने रहने पर भी इन्द्रिय और मनका व्यापार न होनेपर सुषुप्त मूच्छित आदि अवस्थाओंमें ज्ञान नहीं होता। यदि मिथ्याज्ञानमें इन्द्रियोंकी दुष्टता हेतु है तो सम्यग्ज्ञानमें इन्द्रियोंकी निर्दोषताको ही कारण होना चाहिये / ४अन्य कारणोंसे उत्पन्न बुद्धिके द्वारा सन्निकर्षका निश्चय होता है / सन्निकर्षमें प्रविष्ट अर्थके साथ ज्ञानका कार्यकारणभाव तब निश्चित हो सकेगा, जब सन्निकर्ष, आत्मा, मन और इन्द्रिय आदि किसी एक ज्ञानके विषय हों। परन्तु आत्मा, मन और इन्द्रियाँ तो अतीन्द्रिय है। अतः पदार्थके साथ होनेवाला इनका सन्निकर्ष भी स्वभावतः अतीन्द्रिय ही होगा। और इस तरह जब वह विद्यमान रहते हुए भी अप्रत्यक्ष है, तब उसकी ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारणता कैसे मानी जाय ? ज्ञान अर्थको तो जानता है, पर अर्थमें रहनेवाली ज्ञानकारणताको नहीं जानता। जब ज्ञान अतीत और अनागत पदार्थोंको, जो कि ज्ञानकालमें अविद्यमान हैं, जानता है तब अर्थकी ज्ञानके प्रति कारणता अपने आप निस्सार सिद्ध हो जाती है। कामलादिरोगवालेको सफेद शंखमें अविद्यमान पीलेपनका ज्ञान होता है और 1. 'ततः सुभाषितम्-इन्द्रियमनसी कारणं विज्ञानस्य अर्थो विषयः / ' -लधी० स्व० श्लो० 54 / 2. 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् / ' -त० सू० 1114 / 3. लघी० श्लो० 53 / 4. लघी० स्व० श्लो० 55 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org