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________________ 288 जैनदर्शन ( 4 ) सहकारी प्रत्यय / प्रत्येक ज्ञानकी उत्पत्तिमें अनन्तर पूर्वज्ञान समनन्तर प्रत्यय होता है, अर्थात् पूर्व ज्ञानक्षण उत्तर ज्ञानक्षणको उत्पन्न करता है। चक्षु आदि इन्द्रियाँ अधिपति प्रत्यय होती हैं; क्योंकि अनेक कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानकी मालिकी इन्द्रियाँ ही करती हैं यानी चाक्षुषज्ञान, श्रावणज्ञान आदि व्यवहार इन्द्रियोंके स्वामित्वके कारण ही इन्द्रियोंसे होते हैं। जिस पदार्थका ज्ञान होता है वह पदार्थ आलम्बन प्रत्यय होता है / अन्य प्रकाश आदि कारण सहकारी प्रत्यय कहे जाते हैं। सौत्रान्तिक बौद्धोंका यह सिद्धान्त' है कि जो ज्ञानका कारण नहीं होता वह ज्ञानका विषय नहीं हो सकता। नैयायिक आदि इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे ज्ञानको उत्पत्ति स्वीकार करते हैं। अतः इनके मतसे भी सन्निकर्षके घटक रूपमें पदार्थ ज्ञानका कारण हो जाता है। ___बौद्ध-मतमें सभी पदार्थ क्षणिक हैं / जब उनसे पूछा गया कि 'ज्ञान पदार्थ और इन्द्रियोंसे उत्पन्न होकर भी केवल पदार्थको ही क्यों जानता है, इन्द्रियोंको क्यों नहीं जानता ?' तब उन्होंने अर्थजन्यताके साथ-ही-साथ ज्ञानमें अर्थाकारताको भी स्थान दिया यानी जो ज्ञान जिससे उत्पन्न होता है और जिसके आकार होता है वह उसीको जानता है। 'द्वितीयज्ञान प्रथमज्ञानसे उत्पन्न भी होता है, उसके आकार भी रहता है अर्थात् जो आकार प्रथमज्ञानमें है वही आकार द्वितीयज्ञानमें भी होता है, फिर द्वितीयज्ञान प्रथमज्ञानको नहीं जानता?' इस प्रश्नके समाधानके लिये उन्हें तदध्यवसाय भी मानना पड़ा अर्थात् जो ज्ञान जिससे उत्पन्न हो, जिसके आकार हो और जिसका अध्यवसाय ( अनुकूल विकल्पको उत्पन्न करना ) करे, वह उस पदार्थको जानता है। चूंकि नोलज्ञान 'नीलमिदम्' ऐसे विकल्पको उत्पन्न करता है, 'पूर्वज्ञानमिदम्' इस विकल्पको नहीं, अतः वह नीलको ही जानता है, पूर्वज्ञानको नहीं / इस तरह उन्होंने तदुत्पत्ति, ताप्य और तदध्यवसायको ज्ञानका विषयनियामक स्वीकार किया है / 'प्रथमक्षणवर्ती पदार्थ जब ज्ञानको उत्पन्न करके नष्ट हो जाता है, तब वह ग्राह्य कैसे हो सकता है ?' इस प्रश्नका समाधान तदाकारतासे किया गया अर्थात् पदार्थ अगले क्षणमें भले ही नष्ट हो जाय, परन्तु वह अपना आकार ज्ञानमें दे जाता है, इसीलिए ज्ञान उस अर्थको जानता है / 1. 'नाकरणं विषयः ।'--उद्धत बोधिचर्या० पृ० 368 / 2. 'भिन्नक लं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः / हेतुत्वमेव युक्तिशा शानाकारार्पणक्षमम् // ' -प्रमाणवा० 2 / 247 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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