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________________ 287 अर्थात् क्षयोपशमविशेषरूप योग्यता ही मानी गई है / इसके बिना ज्ञानकी प्रकटता नहीं हो सकती, वह उपयोगरूप नहीं बन सकता। बाह्य कारण इन्द्रिय और मन हैं, जिनके होनेपर ज्ञानकी योग्यता पदार्थोके जाननेका व्यापार करती है। भिन्नभिन्न इन्द्रियों के व्यापारसे ज्ञानकी शक्ति उन-उन इन्द्रियोंके विषयोंको जानती है। इन्द्रियव्यापारके समय मनके व्यापारका होना नितान्त आवश्यक है। इसीलिए इन्द्रियप्रत्यक्षमें इन्द्रियोंकी मुख्यता होनेपर भी मनको बलाधायक-बल देनेवाला स्वीकार किया गया है / मानसप्रत्यक्ष या मानसज्ञानमें केवल मनोव्यापार ही कार्य करता है / इन्द्रिय और मनका व्यापार होनेपर जो भी पदार्थ सामने होगा उसका ज्ञान हो ही जायगा। इन्द्रिय और मनके व्यापार नियमसे ज्ञानकी शक्तिको उपयोगमें ला ही देते हैं, जब कि अर्थ और आलोक आदि कारणोंमें यह सामर्थ्य नहीं है कि वे ज्ञानकी शक्तिको उपयोगमें ला हो दें। पदार्थ और प्रकाश आदिके रहनेपर भी सुषुप्त और मूच्छित आदि अवस्थाओंमें ज्ञानकी शक्तिका बाह्य व्यापार नहीं होता। यदि इन्द्रिय और मनकी तरह अर्थ और आलोक आदिको भी ज्ञानका कारण स्वीकार कर लिया जाय, तो सुषुप्त अवस्था और ध्यानका होना असम्भव हो जाता है; क्योंकि पदार्थ और प्रकाशका सान्निध्य जगत्में बना ही हुआ है / विग्रहगति ( एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको धारण करनेके लिए की जानेवाली मरणोत्तर गति ) में इन्द्रिय और मनकी पूर्णता न होनेसे पदार्थ और प्रकाश आदिका सन्निधान होनेपर भी ज्ञानकी उपयोग अवस्था नहीं होती। अतः ज्ञानका अन्वय और व्यतिरेक यदि मिलता है तो इन्द्रिय और मनके साथ ही, अर्थ और आलोकके साथ नहीं। जिस प्रकार तेल, बत्ती, अग्नि आदि अपने कारणोंसे उत्पन्न होनेवाला प्रकाश मिट्टी, कुम्हार आदि अपने कारणोंसे उत्पन्न हुए घड़ेको प्रकाशित करता है, उसी तरह कर्मक्षयोपशम और इन्द्रियादि कारणोंसे उपयोग अवस्थामें आया हुआ ज्ञान अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले जगत्के पदार्थोंको जानता है / जैसे दीपक न तो घटसे उत्पन्न हुआ है और न घटके आकार ही है, फिर भी वह घटका प्रकाशक है; उसी तरह ज्ञान घटादि पदार्थोंसे उत्पन्न न होकर और उनके आकार न होकर भी उन पदार्थोंको जाननेवाला होता है। बौद्धोंके चार प्रत्यय और तदुत्पत्ति आदि : बौद्ध चित्त और चैत्तोंकी उत्पत्तिमें चार प्रत्यय मानते हैं(१) समनन्तर प्रत्यय, (2) अधिपति प्रत्यय, ( 3 ) आलम्बन प्रत्यय और 1. 'चत्वारः प्रत्यया हेतुश्चालम्बनमनन्तरम् / तथैवाधिपतेयं च प्रत्ययो नास्ति पञ्चमः ॥'-माध्यमिककारिका 112 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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