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________________ 286 जैनदर्शन उच्चारण कर सकता है और सुन सकता है और जिन्हें जिन-जिन शब्दोंका संकेत गृहीत है उन्हें उन-उन शब्दोंको सुनकर अर्थबोध भी बराबर होता है / 'स्त्री और शूद्र संस्कृत न पढ़ें तथा द्विज ही पढ़ें' इस प्रकारके विधि-निषेध केवल वर्गस्वार्थकी भित्तिपर आधारित हैं ! वस्तुस्वरूपके विचारमें इनका कोई उपयोग नहीं है, बल्कि ये वस्तुस्वरूपको विकृत ही कर देते हैं। उपसंहार : इस तरह परोक्ष-प्रमाणके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँच भेद होते हैं / इनमें 'अविशद ज्ञान' यह सामान्य लक्षण समानरूपसे पाया जाता है / अतः एक लक्षणसे लक्षित होनेके कारण ये सब परोक्षप्रमाणमें अन्तर्भत हैं; भले ही इनकी अवान्तरसामग्री जुदा-जुदा हो। रह जाती है अमुक ग्रन्थको प्रमाण मानने और न माननेकी बात, सो उसका आधार अविसंवाद ही हो सकता है। जिन वचनों या जिनके वचनोंमें अविसंवाद पाया जाय, वे प्रमाण होते हैं और विसंवादी वचन अप्रमाण / यह विवेक समग्र ग्रन्थके भिन्न-भिन्न अंशोंके सम्बन्ध में भी किया जा सकता है। इसमें सावधानी इतनी ही रखनी है कि अविसंवादित्वकी जाँचमें हमें भ्रम न हो / उसका अन्तिम निष्कर्ष केवल वर्तमानकालीन सीमित साधनोंसे ही नहीं निकाला जाना चाहिये, किन्तु त्रैकालिक कार्यकारणभावकी सुनिश्चित पद्धतिसे ही उसकी जाँच होनी चाहिये / इस खरी कसौटीपर जो वाक्य अपनी यथार्थता और सत्यार्थताको साबित कर सकें वे प्रमाणसिद्ध हैं और शेष अप्रमाण / यही बात आप्तके सम्बन्धमें है। 'यो यत्र वञ्चकः स तत्र आप्तः' अर्थात् जो जिस अंशमें अवंचक-अविसंवादी है वह उस अंशमें आप्त है / इस सामान्य सूत्रके अनुसार लोकव्यवहार और आगमिक परम्परा दोनोंमें आप्तका निर्णय किया जा सकता है और आगमप्रमाण की सीमा लोक और शास्त्र दोनों तक विस्तृत की जा सकती है। यही जैन परम्पराने किया भी है। ज्ञानके कारण : अर्थ और आलोक ज्ञानके कारण नहीं : ज्ञानके कारणोंका विचार करते समय जैनताकिकोंको यह दृष्टि रही है कि ज्ञानकी कारणसामग्रीमें ज्ञानकी शक्तिको उपयोगमें लानेके लिए या उसे लब्धि अवस्थासे व्यापार करनेकी ओर प्रवृत्त करनेमें जो अनिवार्य साधकतम हों उन्हींको शामिल करना चाहिये / इसीलिए ज्ञानके व्यापारमें अन्तरंग कारण उसकी शक्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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