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________________ प्रमाणमीमांसा 285 ___ अर्थबोधके लिए संकेत ही मुख्य आधार है। 'जिस शब्दका, जिस अर्थमें, जिन लोगोंने संकेत ग्रहण कर लिया है, उन शब्दोंसे उन लोगोंको उस अर्थका बोध हो जाता है' यह एक साधारण नियम है। यदि ऐसा न होता तो संसारमें देशभेदसे सैकड़ों प्रकारकी भाषाएँ न बनतीं। एक ही पुस्तकरूप अर्थका 'ग्रन्थ, किताब, पोथी' आदि अनेक देशीय शब्दोंके वाचकव्यवहारमें जब कोई बाधा या असंगति नहीं आई, तब केवल संस्कृत-शब्दमें ही वाचकशक्ति माननेका दुराग्रह और उसीके उच्चारणसे धर्म माननेकी कल्पना तथा स्त्री और शूद्रोंको संस्कृत शब्दोंके उच्चारणका निषेध आदि वर्ग-स्वार्थकी भीषण प्रवृत्तिके ही दुष्परिणाम हैं। धर्म और अधर्मके साधन किसी जाति और वर्गके लिए जुदे नहीं होते। जो ब्राह्मण यज्ञ आदिके समय संस्कृत शब्दोंका उच्चारण करते हैं, वे ही व्यवहारकालमें प्राकृत और अपभ्रंश शब्दोंसे ही अपना समस्त जीवन-व्यवहार चलाते हैं / बल्कि हिसाब लगाया जाय तो चौबीस घंटोंमें संस्कृत शब्दोंका व्यवहार पाँच प्रतिशतसे अधिक नहीं होता होगा। व्याकरणके बन्धनोंमें भाषाको बाँधकर उसे परिष्कृत और संस्कृत बनानेमें हमें कोई आपत्ति नहीं है। और इस तरह वह कुछ विशिष्ट वाग-विलासियोंकी ज्ञान और विनोदकी सामग्री भले ही हो जाय, पर इससे शब्दोंकी सर्वसाधारण वाचकशक्तिरूप सम्पत्तिपर एकाधिकार नहीं किया जा सकता / 'संकेतके अनुसार संस्कृत भी अपने क्षेत्रमें वाचकशक्तिकी अधिकारिणी हो, और शेष भाषाएँ भी अपने-अपने क्षेत्रमें संकेताधीन वाचकशक्तिकी समान अधिकारिणी रहें यही एक तर्कसंगत और व्यवहारी मार्ग है। शब्दकी साधुताका नियामक है 'अवितथ-सत्य अर्थका बोधक होना' न कि उसका संस्कृत होना। जिस प्रकार संस्कृत शब्द यदि अवितथ-सत्य अर्थका बोधक होनेसे साधु हो सकता है, तो उसी तरह प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएँ भी सत्यार्थका प्रतिपादन करनेसे साधु बन सकती हैं / जैन परम्परा जन्मगत जातिभेद और तन्मूलक विशेष अधिकारोंको स्वीकार नहीं करती। इसीलिए वह वस्तुविचारके समय इन वर्गस्वार्थ और पक्षमोहके रंगीन चश्मोंको दृष्टिपर नहीं चढ़ने देती और इसीलिए अन्य क्षेत्रोंकी तरह भाषाके क्षेत्रमें भी उसने अपनी निर्मल दृष्टिसे अनुभवमूलक सत्य-पद्धतिको ही अपनाया है। शब्दोच्चारणके लिए जिह्वा, तालु और कंठ आदिकी शक्ति और पूर्णता अपेक्षित होती है और सुननेके लिए श्रोत्र-इन्द्रियका परिपूर्ण होना। ये दोनों इन्द्रियाँ जिस व्यक्तिके भी होंगी, वह बिना किसी जातिभेदके सभी शब्दोंका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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