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________________ 284 जैनदर्शन भाषाव्यवहारको कल्पना अनुभवविरुद्ध है। बल्कि' कही-कहीं तो जब बालकोंको संस्कृत पढ़ाई जाती है तब 'वृक्ष, अग्नि' आदि संस्कृत शब्दोंका अर्थबोध, 'रूख' 'आगी' आदि अपभ्रंश शब्दोंसे ही कराया जाता है / अनादिप्रयोग, विशिष्टपुरुषप्रणीतता, बाधारहितता, विशिष्टार्थवाचकता और प्रमाणान्तरसंवाद आदि धर्म संस्कृतकी तरह प्राकृतादि शब्दोंमें भी पाये जाते हैं। यदि संस्कृत शब्दके उच्चारणसे ही धर्म होता हो; तो अन्य व्रत, उपवास आदि धर्मानुष्ठान व्यर्थ हो जाते हैं / 'प्राकृत' शब्द स्वयं अपनी स्वाभाविकता और सर्वव्यवहार-मूलकताको कह रहा है / संस्कृतका अर्थ है संस्कार किया हुआ और प्राकृतका अर्थ है स्वाभाविक / किसी विद्यमान वस्तुमें कोई विशेषता लाना ही संस्कार कहलाता है और वह इस अर्थमें कृत्रिम ही है। __ "प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं तत आगतं प्राकृतम्" प्राकृतकी यह २व्युत्पत्ति व्याकरणको दृष्टिसे है। पहले संस्कृतके व्याकरण बने हैं और पीछे प्राकृतके व्याकरण / अतः व्याकरण-रचनामें संस्कृत-शब्दोंको प्रकृति मानकर, वर्णविकार वर्णागम आदिसे प्राकृत और अपभ्रंशके व्याकरणकी रचनाएँ हुई हैं। किन्तु प्रयोगकी दृष्टिसे तो प्राकृत शब्द ही स्वाभाविक और जन्मसिद्ध हैं। जैसे कि मेघका जल स्वभावतः एकरूप होकर भी नीम, गन्ना आदि विशेष आधारोंमें संस्कारको पाकर अनेकरूपमें परिणत हो जाता है, उसी तरह स्वाभाविक सबकी बोली प्राकृत भाषा पाणिनि आदिके व्याकरणोंसे संस्कारको पाकर उत्तरकालमें संस्कृत आदि नामोंको पा लेती है। पर इतने मात्रसे वह अपने मूलभूत प्राकृत शब्दोंकी अर्थबोधक शक्तिको नहीं छीन सकती। 1. 'विपर्ययदर्शनाच्च...".-वादन्यायटी० पृ० 105 / 2. देखो, हेम० प्र०, प्राकृतसर्व०, प्राकृतच०, वाग्भटा० टी० 2 / 2 / नाट्यशा० 1712 / त्रि० प्रा० पृ० 1 / प्राकृतसं० / 3. 'प्राकृतेति—सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यवहारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् / 'आरिसवयणसिद्धदेवाणं अद्धमग्गहा वाणी इत्यादिवचनाद्वा प्राक् पूर्व कृतं प्राक् कृतम् , बालमहिलादिसकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितविशेषं सत् संस्कृताधुत्तरविमेदानाप्नोति / अत एव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि / पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते।' -काव्या० रुद्र० नमि० 2 / 22 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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