________________ प्रमाणमीमांसा 283 तन्त्रवार्तिक ( पृ० 278 ) आदिमें भी व्याकरणसिद्ध शब्दोंको साधु और वाचकशक्तियुक्त कहा है और साधुत्वका आधार वृत्तिमत्त्व (संकेतसे अर्थबोध करना) को न मानकर व्याकरणनिष्पन्नत्वको ही अर्थबोध और साधुत्वका आधार माना गया है। इस तरह जब अर्थबोधक शक्ति संस्कृत-शब्दोंमें ही मानी गई, तब यह प्रश्न स्वाभाविक था कि 'प्राकृत और अपभ्रंश आदि शब्दोंसे जो अर्थबोध होता है वह कैसे ?' इसका समाधान द्राविड़ी प्राणायामके ढंगसे किया है। उनका कहना है कि 'प्राकृत आदि शब्दोंको सुनकर पहले संस्कृत शब्दोंका स्मरण होता है और पीछे उनसे अर्थबोध होता है। जिन लोगोंको संस्कृत शब्द ज्ञात नहीं है, उन्हें प्रकरण, अर्थाध्याहार आदिके द्वारा लक्षणासे अर्थबोध होता है। जैसे कि बालक 'अम्मा अम्मा' आदि रूपसे अस्पष्ट उच्चारण करता है, पर सुननेवालोंको तद्वाचक मूल 'अम्ब' शब्दका स्मरण होकर ही अर्थ प्रतीति होती है, उसी तरह प्राकृत आदि शब्दोंसे भी संस्कृत शब्दोंका स्मरण करके ही अर्थबोध होता है। तात्पर्य यह कि कहींपर साधु शब्दोंके स्मरणके द्वारा, कहीं वाचकशक्तिके भ्रमसे, कहीं प्रकरण और अविनाभावी अर्थका ज्ञान आदि निमित्तसे होनेवाली लक्षणासे अर्थबोधका निर्वाह हो जाता है। इस तरह एक विचित्र साम्प्रदायिक भावनाके वश होकर शब्दोंमें साधुत्व और असाधुत्वकी जाति कायम की गई है ! उत्तर पक्ष: 'किन्तु जब अन्वय लौर व्यतिरेक द्वारा संस्कृत शब्दोंकी तरह प्राकृत और और अपभ्रंश शब्दोंसे स्वतन्त्रभावसे अर्थप्रतीति और लोकव्यवहार देखा जाता है, तब केवल संस्कृत शब्दोंको साधु और वाचकशक्तिवाला बताना पक्षमोहका ही परिणाम है / जिन लोगोंने संस्कृत शब्दोंको स्वप्नमें भी नहीं सुना है, वे निर्बाध रूपसे प्राकृत आदि भाषा-शब्दोंसे ही सीधा व्यवहार करते हैं / अतः उनमें वाचकशक्ति स्वसिद्ध ही माननी चाहिये। जिनकी वाचकशक्तिका उन्हें भान ही नहीं है उन शब्दोंका स्मरण मानकर अर्थबोधकी बात करना व्यवहारविरुद्ध तो है ही, कल्पनासंगत भी नहीं है। प्रमाद और अशक्तिसे प्राकृत शब्दोंका उच्चारण उन लोगोंका तो माना जा सकता है जो संस्कृत शब्दोंको धर्म मानते हैं, पर जिन असंख्य व्यवहारी लोगोंकी भाषा ही प्राकृत और अपभ्रंशरूप लोकभाषा है और यावज्जीवन वे उसीसे अपनी लोकयात्रा चलाते हैं, उनके लिए प्रमाद और अशक्तिसे 1. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 762 / 2. 'म्लेच्छादीनां साधुशब्दपरिशानाभावात् कथं तद्विषया स्मृतिः ? तदभावे न गोऽर्थ प्रतिपत्ति स्यात् ।'–तत्त्वोप० पृ० 124 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org