________________ 282 जैनदर्शन __इस तरह शब्दराशिके एक बड़े भागको वाचकशक्तिसे शून्य कहनेवाले इस मतमें एक विचित्र साम्प्रदायिक भावना कार्य कर रही है। ये संस्कृत शब्दोंको साधु कहकर' और इनमें ही वाचकशक्ति मानकर ही चुप नहीं हो जाते, किन्तु साधुशब्दके उच्चारणको२ धर्म और पुण्य मानते हैं और उसे ही कर्तव्य-विधिमें शामिल करते हैं तथा असाधु अपभ्रंश-शब्दोंके उच्चारणको शक्तिशून्य ही नहीं, पापका कारण भी कहते हैं। इसका मूल कारण है संस्कृतमें रचे गये वेदको धर्म्य और प्रमाण मानना तथा प्राकृत, पाली आदि भाषाओमें रचे गये जैन, बौद्ध आदि आगमोंको अधर्म्य और अप्रमाण घोषित करना। स्त्री और शूद्रोंको धर्मके अधिकारोंसे वंचित करनेके अभिप्रायसे उनके लिये संस्कृत-शब्दोंका उच्चारण ही निषिद्ध कर दिया गया। नाटकोंमें स्त्री और शूद्र पात्रोंके मुखसे प्राकृतका ही उच्चारण कराया गया है। 'ब्राह्मण को साधु शब्द बोलना चाहिये, अपभ्रंश या म्लेच्छ शब्दोंका व्यवहार नहीं करना चाहिए' आदि विधिवाक्योंकी सृष्टिका एक ही अभिप्राय है कि धर्ममें वेद और वेदोपजीवी वर्गका अबाध अधिकार कायम रहे / अधिकार हथयानेकी इस भावनाने वस्तु के स्वरूपमें ही विपर्यास उत्पन्न कर देनेका चक्र चलाया और एकमात्र संकेतके बलपर अर्थबोध करनेवाले शब्दोंमें भी जातिभेद उत्पन्न कर दिया गया। इतना ही नहीं 'असाधु दुष्ट शब्दोंका उच्चारण वज्र बनकर इन्द्रकी तरह जिह्वाको छेद देगा' यह भय भी दिखाया। गया। तात्पर्य यह कि वर्गभेदके विशेषाधिकारोंका कुचक्र भाषाके क्षेत्रमें भी अबाध गतिसे चला। वाक्यपदीय ( 1-27 ) में शिष्ट पुरुषोंके द्वारा जिन शब्दोंका उच्चारण हुआ है ऐसे आगमसिद्ध शब्दोंको साधु और धर्मका साधन माना है। यद्यपि अपभ्रंश आदि शब्दोंके द्वारा अर्थप्रतीति होती है, चूंकि उनका प्रयोग शिष्ट-जन आगमोंमें नहीं करते हैं, इसलिए वे असाधु हैं / 1. 'इत्थं च संस्कृत एव शक्तिसिद्धौ शक्यसम्बन्धरूपवृत्तेरपि तत्रैव भावात्तत्त्वं साधुत्वम् / ' -वैयाकरणभू० पृ० 246 / 2. 'शिष्टेभ्य आगमात् सिद्धाः साधवो धर्मसाधनम् / ' -वाक्यप० / 27 / महा० पस्पशा० / 4. ‘स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् / ' -पात० महा० पस्पशा०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org