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________________ प्रमाणमीमांसा 281 नहीं पड़ता है। अतः सामग्रीभेदसे एक ही पदार्थमें स्पष्ट-अस्पष्ट आदि नाना प्रतिभास होते हैं। यदि शब्दका वाच्य वस्तु न हो, तो शब्दोंमें सत्यत्व और असत्यत्व व्यवस्था नहीं की जा सकती। ऐसी दशामें 'सर्वं क्षणिक सत्त्वात्' इत्यादि आपके वाक्य भी उसी तरह मिथ्या होंगे जिस प्रकार कि 'सर्वं नित्यम्' इत्यादि विरोधी वाक्य / समस्त शब्दोंको विवक्षाका सूचक मानने पर भी यही दुषण अनिवार्य है। यदि शब्दसे मात्र विवक्षाका ज्ञान होता है तो उससे बाह्य अर्थको प्रतिपत्ति, प्रवृत्ति और प्राप्ति होनी चाहिये / अतः व्यवहारसिद्धिके लिये शब्दका वाच्य वस्तुभूत सामान्यविशेषात्मक पदार्थ ही मानना चाहिये। शब्दोंमें सत्यासत्य व्यवस्था भी अर्थकी प्राप्ति और अप्राप्ति के निमित्तसे ही स्वीकार की जाती है। जो शब्द अर्थव्यभिचारी हैं वे खुशीसे शब्दाभास सिद्ध हों, पर इतने मात्रसे सभी शब्दोंका सम्बन्ध अर्थसे नहीं तोड़ा जा सकता और न उन्हें अप्रमाण ही कहा जा सकता है। यह ठीक ही है कि शब्दकी प्रवृत्ति बुद्धिगत संकेतके अनुसार होती है। जिस अर्थमें जिस शब्दका जिस रूपसे संकेत किया जाता है, वह शब्द उस अर्थका उस रूपसे वाचक है और वह अर्थ वाच्य / यदि वस्तु सर्वथा अवाच्य है; तो वह 'वस्तु' 'अवाच्य' आदि शब्दोंके द्वारा भी नहीं कही जा सकेगी और इस तरह जगतसे समस्त शब्दव्यवहारका उच्छेद ही हो जायगा। हम सभी शब्दोंको अर्थाविनाभावी नहीं कहते, किन्तु 'जिनके वक्ता आप्त हैं वे शब्द कभी भी अर्थक व्यभिचारी नहीं हो सकते' हमारा इतना ही अभिप्राय है / प्राकृतअपभ्रंश शब्दोंकी अर्थवाचकता (पूर्वपक्ष) : इस तरह 'शब्द अर्थके वाचक हैं' यह सामान्यतः सिद्ध होनेपर भी मीमांसक और वैयाकरणोंका यह आग्रह है कि सभी शब्दोंमें वाचकशक्ति नहीं है, किन्तु संस्कृत शब्द ही साधु हैं और उन्हींमें वाचकशक्ति है। प्राकृत, अपभ्रंश आदि शब्द असाधु हैं, उनमें अर्थ प्रतिपादनकी शक्ति नहीं है। जहाँ-कहीं प्राकृत या अपभ्रंश शब्दोंके द्वारा अर्थप्रतीति देखी जाती है, वहाँ वह शक्तिभ्रमसे ही होती है, या उन प्राकृतादि असाधु शब्दोंको सुनकर प्रथम ही संस्कृत-साधु शब्दोंका स्मरण आता है और फिर उनसे अर्थ बोध होता है। 1. "गवादय एव साधबो न गाव्यादयः इति साधुत्वरूपनियमः।" -शास्त्रदी० 113 / 27 / 2. 'न चापभ्रंशानामवाचकतया कथमर्थावबोध इति वाच्यम् , शक्तिभ्रमवतां बाधकाभावात् / विशेषदर्शिनस्तु द्विविधाः-तत्तद्वाचकसंस्कृतविशेषशानवन्तः तद्वि कलाश्च / तत्र आद्यानां साधुस्मरणद्वारा अर्थबोधः।'-शब्दकौ० पृ० 32 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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