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________________ 290 जैनदर्शन मरणोन्मुख व्यक्तिको पदार्थके रहने पर भी उसका ज्ञान नहीं होता या विपरीत ज्ञान होता है। क्षणिक पदार्थ तो ज्ञानके प्रति कारण भी नहीं हो सकते; क्योंकि जब वह क्षणिक होनेसे कार्यकाल तक नहीं पहुँचता तब उसे कारण कैसे कहा जाय ? अर्थके होनेपर भी उसके कालमें ज्ञान उत्पन्न नहीं होता तथा अर्थक अभावमें ही ज्ञान उत्पन्न होता है, तब ज्ञान अर्थका कार्य कैसे माना जा सकता है ? कार्य और कारण समानकालमें तो नहीं रह सकते / ___ ज्ञान' अमूर्त है, अतः वह मूर्त अर्थके प्रतिबिम्बको भी धारण नहीं कर सकता। मूर्त दर्पण आदिमें ही मूर्त्त मुख आदिका प्रतिबिम्ब आता है, अमूर्तमें मूर्तका नहीं। यदि पदार्थसे उत्पन्न होनेके कारण ज्ञानमें विषयप्रतिनियम हो; तो घटज्ञानको घटकी तरह कारणभूत इन्द्रिय आदिको भी विषय करना चाहिए। तदाकारतासे विषयप्रतिनियम मानने पर एक घटका ज्ञान होनेसे उस आकारवाले यावत् घटोंका परिज्ञान हो जाना चाहिये। यदि तदुत्पत्ति और तदाकारता मिलकर नियामक हैं, तो द्वितीय घटज्ञानको प्रथम घटज्ञानका नियामक होना चाहिये; क्योंकि प्रथम घटज्ञानसे वह उत्पन्न हुआ है और जैसा प्रथम घटज्ञानका आकार है वैसा ही आकार उसमें होता है / तदध्यवसायसे भी वस्तुका प्रतिनियम नहीं होता; क्योंकि शुक्ल शंखमें होनेवाले पीताकार ज्ञानसे उत्पन्न द्वितीय ज्ञानमें अनुकूल अध्यवसाय तो देखा जाता है पर नियामकता नहीं है। अतः अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न ज्ञान और अर्थमें दीपक और घटके प्रकाश्यप्रकाशकभावकी तरह ज्ञेय-ज्ञायकभाव मानना ही उचित है। जैसे देवदत्त और काठ अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न होकर भी छेदन क्रियाके कर्ता और कर्म बन जाते हैं उसी तरह अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न ज्ञेय और ज्ञानसे भी ज्ञाप्य-ज्ञापक भाव हो जाता है / जिस प्रकार खदानसे निकली हुई मलिन मणि अनेक शाण आदि कारणोंसे न्यूनाधिकरूपमें निर्मल और स्वच्छ होती है उसी तरह कर्ममुक्त मलिन आत्माका ज्ञान भी अपनी विशुद्धिके अनुसार तरतमरूपसे प्रकाशमान होता है और अपनी क्षयोपशमरूप योग्यताके अनुसार पदार्थों को जानता है / अतः अर्थको ज्ञानमें साधकतम कारण नहीं माना जा सकता। पदार्थ तो जगत्में विद्यमान हैं ही, जो सामने आ गया उसे मात्र इन्द्रिय और मन के व्यापारसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान जानेगा ही। 1. लपी० स्व० श्लो० 58 / 2. 'स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा। तथा शानं स्वहेतृत्थं परिच्छेदात्मक स्वतः // ' लघो० स्व० श्लो० 59 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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