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________________ प्रमाणमीमांसा 279 पूर्ण है; क्योंकि वस्तुमें अनन्त धर्म है, उनमेंसे कोई ही धर्म किसी ज्ञानके विषय होते हैं; सब सबके नहीं। जिनकी जब जैसी इन्द्रियादिसामग्री और योग्यता होती है वह धर्म उस ज्ञानका स्पष्ट या अस्पष्टरूपमें विषय बनता है। ____ यदि गौशब्दके द्वारा अगोनिवृत्ति मुख्यरूपसे कही जाती है; तो गौ शब्दके सुनते ही सबसे पहले 'अगौ' ऐसा ज्ञान श्रोताको होना चाहिये, पर यह देखा नहीं जाता। आप गोशब्दसे अश्वादिकी निवृत्ति करते हैं; तो अश्वादिनिवृत्तिरूप कौन-सा पदार्थ शब्दका वाच्य होगा? असाधारण गोस्वलक्षण लो हो नहीं सकता; क्योंकि वह समस्त शब्द और विकल्पोके अगोचर है। शावलेयादि व्यक्तिविशेषको कह नहीं सकते; क्योंकि यदि गो-शब्द शावलेयादिका वाचक होता है तो वह सामान्यशब्द नहीं रह सकता। इसलिए समस्त सजातीय शावलेयादिव्यक्तियोंमें प्रत्येकमें जो सादृश्य रहता है, तन्निमित्तक ही गौबुद्धि होती है और वही सादृश्य सामान्य / आपके मतसे जो विभिन्न सामान्यवाची गौ, अश्व आदि शब्द हैं वे सब मात्र निवृत्तिके वाचक होनेसे पर्यायवाची हो जायगे, क्योंकि वाच्यभूत अपोहके नीरूप ( तुच्छ ) होनेसे उसमें कोई भेद शेष नहीं रहता। एकत्व, नानात्व और संसृष्टत्व आदि धर्म वस्तुमें ही प्रतीत होते हैं। यदि अपोहमें भेद माना जाता है तो वह भी वस्तु ही हो जायगा। २अपोह्य (जिनका अपोह किया जाता है) नामक सम्बन्धियोंके भेदसे अपोहमें भेद डालना उचित नहीं है; क्योंकि ऐसी दशामें प्रमेय, अभिधेय और ज्ञेय आदि शब्दोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि संसारमें अप्रमेय, अनभिधेय और अज्ञेय आदि की सत्ता ही नहीं है / यदि शावलेयादि गौव्यक्तियोंमें परस्पर सादृश्य न होने पर भी उनमें एक अगोपोहकी कल्पना की जाती है तो गौ और अश्वमें भी एक अपोहकी कल्पना हो जानी चाहिये; क्योंकि शावलेय-गौ व्यक्ति बाहुलेयगौव्यक्तिसे जब उतनी ही भिन्न है, जितनी कि अश्वव्यक्तिसे तो परस्पर उनमें कोई विशेषता नहीं रहती। अपोहपक्षमें इतरेतराश्रय दोष भी आता है-अगौका व्यवच्छेद करके गौकी प्रतिपत्ति होती है और गौका व्यवच्छेद करके अगौका ज्ञान होता है। ____ अपोहपक्षमें विशेषणविशेष्य-भावका बनना भी कठिन है; क्योंकि जब 'नीलम् उत्पलम्' यहाँ ‘अनीलव्यावृत्तिसे विशिष्ट अनुत्पलव्यावृत्ति' यह अर्थ फलित होता है 1. देखो, प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० 433 / 2. प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० 434 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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