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________________ 278 जैनदर्शन तरह आप्तके वचनके द्वारा' यदि अर्थका बोध न हो; तो आप्त और अनाप्तका भेद कैसे सिद्ध होगा ? यदि पुरुषोंके अभिप्रायोंमें विचित्रता होनेके कारण सभी शब्द अर्थव्यभिचारी करार दिये जायँ, तो सुगतके सर्वशास्तृत्वमें कैसे विश्वास किया जा सकेगा ? यदि अर्थव्यभिचार होनेके कारण शब्द अर्थमें प्रमाण नहीं हैं; तो अन्य शब्दकी विवक्षामें अन्य शब्दका प्रयोग देखा जानेसे जब विवक्षाव्यभिचार भी होता है, तो उसे विवक्षामें भी प्रमाण कैसे कहा जा सकता है ? जिस तरह सुविवेचित व्याप्य और कार्य अपने व्यापक और कारणका उल्लंघन नहीं कर सकते, उसी तरह सुविवेचित शब्द भी अर्थका व्यभिचारी नहीं हो सकता। फिर शब्दका विवक्षाके साथ कोई अविनाभाव भी नहीं है, क्योंकि शब्द वर्ण या पद कहीं अवांछित अर्थको भी कहते हैं और कहीं वाञ्छितको भी नहीं कहते / / यदि शब्द विवक्षामात्रके वाचक हों, तो शब्दोंमें सत्यत्व और मिथ्यात्वकी व्यवस्था न हो सकेगी। क्योंकि दोनों ही प्रकारके शब्द अपनी-अपनी विवक्षाका अनुमान तो कराते ही हैं। शब्दमें सत्य और असत्य व्यवस्थाका मूल आधार अर्थप्राप्ति और अप्राप्ति ही बन सकता है। जिस शब्दका अर्थ प्राप्त हो वह सत्य और जिसका अर्थ प्राप्त न हो वह मिथ्या होता है। जिन शब्दोंका बाह्य अर्थ प्राप्त नहीं होता उन्हें ही हम विसंवादी कहकर मिथ्या ठहराते हैं। प्रत्येक दर्शनकार अपने द्वारा प्रतिपादित शब्दोंका वस्तुसम्बन्ध ही तो बतानेका प्रयास करता है। वह उसकी काल्पनिकताका परिहार भी जोरोंसे करता है। अविसंवादका आधार अर्थप्राप्तिको छोड़कर दूसरा कोई बन ही नहीं सकता। अगोनिवृत्तिरूप सामान्यमें जिस गौकी आप निवृत्ति करना चाहते हैं उस गौका निर्वचन करना ही कठिन है। स्वलक्षणभूत गौकी निवृत्ति तो इसलिये नहीं कर सकते कि वह शब्दके अगोचर है। यदि अगोनिवृत्तिके पेटमें पड़ी हुई गौको भी अगोनिवृत्तिरूप ही कहा जाता है, तो अनवस्थासे पिंड नहीं छूटता। व्यवहारी सीधे गौशब्दको सुनकर गौ अर्थका ज्ञान करते हैं, वे अन्य अगौ आदिका निषेध करके गौ तक नहीं पहुँचते। गायोंमें ही 'अगोनिवृत्ति पायी जाती है।' इसका अर्थ ही है कि उन सबमें यह एक समान धर्म है। 'शब्दका अर्थके साथ सम्बन्ध माननेपर अर्थके देखनेपर शब्द भी सुनाई देना चाहिए' यह आपत्ति अत्यन्त अज्ञान१. 'आप्तोक्तेहेंतुवादाच्च बहिराविनिश्चये / सत्येतरव्यवस्था का साधनेतरता कुतः ॥'-लघी० का० 28 / 2. लघीय० श्लो० 26 / 3. लघीय० श्लो० 64, 65 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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