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________________ प्रमाणमीमांसा 277 अनन्त विशेषव्यक्तियाँ तत्तत्रूपमें हम लोगोंके ज्ञानका जब विषय ही नहीं बन सकतीं, तब उनमें संकेत ग्रहणकी बात तो अत्यन्त असम्भव है। सदृश धर्मोंकी अपेक्षा शब्दका अर्थमें संकेत ग्रहण किया जाता है। जिस शब्दव्यक्ति और अर्थव्यक्तिमें संकेत ग्रहण किया जाता है, भले ही वे व्यवहारकाल तक न जाँय, पर तत्सदृश दूसरे शब्दसे तत्सदृश दूसरे अर्थकी प्रतीति होनेमें क्या बाधा है ? एक घटशब्दका एक घटपदार्थमें संकेत ग्रहण करनेपर भी तत्सदृश यावत् घटोंमें तत्सदृश यावत् घटशब्दोंकी प्रवृत्ति होती ही है। संकेत ग्रहण करने के बाद शब्दार्थका स्मरण करके व्यवहार किया जाता है। जिस प्रकार प्रत्यक्षबुद्धि अतीत अर्थको जानकर भी प्रमाण है, उसी तरह स्मृति भी प्रमाण ही है, न केवल प्रमाण ही, किन्तु सविषयक भी है। जब अविसंवादप्रयुक्त प्रमाणता स्मृतिमें है तब शब्द सुनकर तद्वाच्य अर्थका स्मरण करके तथा अर्थको देखकर तद्वाचक शब्दका स्मरण करके व्यवहार अच्छी तरह चलाया जा सकता है / एक सामान्य-विशेषात्मक अर्थको विषय करने पर भी इन्द्रियज्ञान स्पष्ट और शब्दज्ञान अस्पष्ट होता है। जैसे कि एक ही वृक्षको विषय करनेवाले दूरवर्ती और समीपवर्ती पुरुषोंके ज्ञान अस्पष्ट और स्पष्ट होते हैं / ' स्पष्टता और अस्पष्टता विषयभेदके कारण नहीं आतो, किन्तु आवरणके क्षयोपशमसे आती है। फिर शब्दसे होनेवाला अर्थका बोध मानस है और इन्द्रियसे होनेवाला पदार्थका ज्ञान ऐन्द्रियक है। जिस तरह अविनाभावसम्बन्धसे अर्थका बोध करनेवाला अनुमान अस्पष्ट होकर भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण है, उसी तरह वाच्यवाचकसम्बन्धके बलपर अर्थबोध करानेवाला शब्दज्ञान भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण ही होना चाहिये। हाँ, जिस शब्दमें विसंवाद या संशयादि पाये जाँय, वह अनुमानाभास और प्रत्यक्षाभासकी तरह शब्दाभास हो सकता है, पर इतने मात्रसे सभी शब्दज्ञानोंको अप्रमाणकोटिमें नहीं डाला जा सकता। कुछ शब्दोंको अर्थव्यभिचारी देखकर सभी शब्दोंको अप्रमाण नहीं ठहराया जा सकता। ___ यदि शब्द बाह्यार्थमें प्रमाण न हो, तो क्षणिकत्व आदिके प्रतिपादक शब्द भी प्रमाण नहीं हो सकेंगे। और तब बौद्ध स्वयं अदृष्ट नदी, देश और पर्वतादिका ज्ञान शब्दोंसे कैसे कर सकेंगे ?3 यदि हेतुवादरूप (परार्थानुमान ) शब्दके द्वारा अर्थका निश्चय न हो; तो साधन और साधनाभासकी व्यवस्था कैसी होगी? इसी 1. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 565 / 2. लघीय० श्लो० 27 / 3. लघीय० श्लो० 26 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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