________________ जैनदर्शन 'इन्द्रियग्राह्य पदार्थ भिन्न होता है और शब्दगोचर अर्थ भिन्न / शब्दसे अन्धा भी अर्थबोध कर सकता है, पर वह अर्थको प्रत्यक्ष नहीं जान सकता / दाह शब्दके द्वारा जिस दाह अर्थका बोध होता है और अग्निको छुकर जिस दाहकी प्रतीति होती है, वे दोनों दाह जुदे-जुदे हैं, इसे समझनेकी आवश्यकता नहीं है / अतः शब्द केवल कल्पित सामान्यका वाचक है। ____ यदि शब्द अर्थका वाचक होता, तो शब्दबुद्धिका प्रतिभास इन्द्रियबुद्धिकी तरह विशद होना चाहिए था। अर्थव्यक्तियाँ अनन्त और क्षणिक हैं, इसलिए जब उनका ग्रहण ही सम्भव नहीं है; तब पहले तो उनमें संकेत ही गृहीत नहीं हो सकता, यदि संकेत गृहीत हो भी जाय, तो व्यवहारकाल तक उसकी अनुवृत्ति नहीं हो सकती, अतः उससे अर्थबोध होना असम्भव है। कोई भी प्रत्यक्ष ऐसा नहीं है, जो शब्द और अर्थ दोनोंको विषय करता हो, अतः संकेत होना ही कठिन है। स्मरण निविषय और गृहीतग्राही होनेसे प्रमाण ही है / सामान्यविशेषात्मक अर्थ वाच्य है : किन्तु बौद्धकी यह मान्यता उचित नहीं है / पदार्थमें कुछ धर्म सदृश होते हैं और कुछ विसदृश / सदृश धर्मोको ही सामान्य कहते हैं। यह अनेकानुगत न होकर प्रत्येक व्यक्तिनिष्ठ है। यदि सादृश्यको वस्तुगत धर्म न माना जाय, तो अगोनिवृत्ति 'अमुक गौव्यक्तियोंमें ही पायी जाती है, अश्वादि व्यक्तियोंमें नहीं, यह नियम कैसे किया जा सकेगा? जिस तरह भाव-अस्तित्व वस्तुका अर्थ है, उसो तरह अभाव-परनास्तित्व भी वस्तुका ही धर्म है / उसे तुच्छ या निःस्वभाव कहकर उड़ाया नहीं जा सकता / सादृश्यका बोध और व्यवहार हम चाहे अगोनिवृत्ति आदि निषेधमुखसे करें या सास्नादिमत्त्व आदि समानधर्मरूप गोत्व आदिको देखकर करें, पर इससे उसको परमार्थसत् वस्तुतामें कोई बाधा नहीं आती। जिस तरह प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय सामान्यविशेषात्मक पदार्थ होता है, उसी तरह शब्दसंकेत भी सामान्यविशेषात्मक पदार्थमें ही किया जाता है। केवल सामान्यमें यदि संकेत ग्रहण किया जाय, तो उससे विशेषव्यक्तियोंमें प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। 1. 'अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यमन्यच्छब्दस्य गोचरः / शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते // " -उद्धृत प्रश० व्यो० पृ० 584 / -न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 553 / 2. "तत्र स्वलक्षणं तावन्न शब्दैः प्रतिपाद्यते / सङ्कतव्यवहाराप्तकालव्याप्तिविरोधतः ॥-तत्त्वसं० पृ० 207 / यकुमुदचन्द्र पृ० 557 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org