________________ प्रमाणमीमांसा 275 बुद्धिप्रतिबिम्बित अन्यापोहके वाचक होते हैं। यदि' शब्दोंका अर्थसे वास्तविक सम्बन्ध होता तो एक ही वस्तुमें परस्पर विरोधी विभिन्न शब्दोंकी और उन शब्दोंके आधारसे रचे हए विभिन्न दर्शनोंकी सृष्टि न हुई होती। 'अग्नि ठंडी है या गरम' इसका निर्णय जैसे अग्नि स्वयं अपने स्वरूपसे कर देती है, उसी तरह 'कौन शब्द सत्य है और कौन असत्य' इसका निर्णय भी शब्दको अपने स्वरूपसे ही कर देना चाहिये था, पर विवाद आज तक मौजूद है / अतः गौ आदि शब्दोंको सुनकर हमें एक सामान्यका बोध होता है। यह सामान्य वास्तविक नहीं है / किन्तु विभिन्न गौ व्यक्तियोंमें पाई जानेवाली अगोव्यावृत्तिरूप है। इस अगोपोहके द्वारा ‘गौ गौ' इस सामान्यव्यवहारकी सृष्टि होती है। और यह सामान्य उन्हीं व्यक्तियोंको प्रतिभासित होता है, जिनने अपनी बुद्धिमें इस प्रकारके अभेदका भान कर लिया है। अनेक गायोंमें अनुस्यूत एक, नित्य और निरंश गोत्व असत् है, क्योंकि विभिन्न देशवर्ती व्यक्तियोंमें एक साथ एक गोत्वका पाया जाना अनुभवसे विरुद्ध तो है ही, साथ-ही-साथ व्यक्तिके अन्तरालमें उसकी उपलब्धि न होनेसे बाधित भी है। जिस प्रकार छात्रमण्डल छात्रव्यक्तियोंको छोड़कर अपना कोई पृथक् अस्तित्व नहीं रहता, वह एक प्रकारकी कल्पना है, जो सम्बन्धित व्यक्तियों की बुद्धि तक ही सीमित है, उसी तरह गोत्व और मनुष्यत्वादि सामान्य भी काल्पनिक हैं, बाह्य सत् वस्तु नहीं। सभी गायें गौके कारणोंसे उत्पन्न हुई हैं और आगे गौके कार्योंको करतो हैं, अतः उनमें अगोकारणव्यावृत्ति और अगोकार्यन्यावृत्ति अर्थात् अतत्कार्यकारणव्यावृत्तिसे सामान्यव्यवहार होने लगता है। परमार्थसत् गौ वस्तु क्षणिक है, अतः उसमें संकेत भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। जिस गौव्यक्तिमें संकेत ग्रहण किया जायगा, वह गौ व्यक्ति द्वितीय क्षणमें जब नष्ट हो जाती है, तब वह संकेत व्यर्थ हो जाता है; क्योंकि अगले क्षणमें जिन गौव्यक्तियों और शब्दोंसे व्यवहार करना है उन व्यक्तियोंमें तो संकेत ही ग्रहण नहीं किया गया है, वे तो असंकेतित ही हैं। अतः शब्द वक्ताकी विवक्षा को सूचित करता हुआ, बुद्धिकल्पित अन्यव्यावृत्ति या अन्यापोहका ही वाचक होता है. अर्थका नहीं / 1. 'परमार्थंकतानत्वे शब्दानामनिवन्धना / न रयात्प्रवृत्तिरर्थेषु समयान्तरभेदिपु ॥'-प्रमाणवा० 3 / 206 / 2. “विकल्पप्रतिबिम्बेषु तन्निष्ठेषु निबध्यते / ततोऽन्यापोहनिष्ठत्वादुक्ताऽन्यापोहकृच्छतिः ॥"-प्रमाणवा० 2 / 164 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org