________________ 274 जैनदर्शन यह सम्बन्ध माता, पिता, गुरु तथा समाज आदिकी परम्परा द्वारा अनादि कालसे प्रवाहित है और जगत्की समस्त व्यवहार-व्यवस्थाका मूल कारण बन रहा है। ऊपर जिस आप्तके वचनको श्रुत या आगम प्रमाण कहा है, उसका व्यापक लक्षण' तो 'अवञ्चकत्व या अविसंवादित्व' ही है, परन्तु आगमके प्रकरणमें वह आप्त-सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी विवक्षित है। मनुष्य अज्ञान और रागद्वेषके कारण मिथ्या भाषणमें प्रवृत्त होता है / जिस वस्तुका ज्ञान न हो, या ज्ञान होकर भी किसीसे राग या द्वेष हो, तो ही असत्य वचनका अवसर आता है। अतः सत्यवक्ता आप्तके लिये पूर्ण ज्ञानी और वीतरागी होना तो आवश्यक है ही, साथ-ही-साथ उसे हितोपदेशी भी होना चाहिये / हितोपदेशकी इच्छाके बिना जगतहितमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। हितोपदेशित्वके विना सिद्ध पूर्ण ज्ञानी और वीतरागी होकर भी आप्त-कोटिमें नहीं आते, वे आप्तसे ऊपर हैं / हितोपदेशित्वकी भावना होनेपर भी यदि पूर्ण ज्ञान और वीतरागता न हो, तो अन्यथा उपदेशकी सम्भावना बनी रहती है। यही नीति लौकिक वाक्योंमें तद्विषयक ज्ञान और और तद्विषयक अवञ्चकत्वमें लागू है। शब्दको अर्थवाचकता : अन्यापोह शब्दका वाच्य नहीं : बौद्ध अर्थको शब्दका वाच्य नहीं मानते। उनका कहना है कि शब्द अर्थके प्रतिपादक नहीं हो सकते; क्योंकि जो शब्द अर्थकी मौजूदगीमें उनका कथन करते हैं वे ही अतीत-अनागतरूपसे अविद्यमान पदार्थोंमें भी प्रयुक्त होते हैं / अतः उनका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, अन्यथा कोई भी शब्द निरर्थक नहीं हो सकेगा। स्वलक्षण अनिर्देश्य है। अर्थ में शब्द नहीं है और न अर्थ शब्दात्मक ही है, जिससे कि अर्थके प्रतिभासित होनेपर शब्दका बोध हो या शब्दके प्रतिभासित होनेपर अर्थका बोध अवश्य हो / वासना और संकेतकी इच्छाके अनुसार शब्द अन्यथा भी संकेतित किये जाते हैं, इसलिए उनका अर्थसे कोई अविनाभाव नहीं है / वे केवल 1. 'यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तः, ततः परोऽनाप्तः / तत्त्वप्रतिपादनमविसंवादः।' -अष्टश० अष्टसह० पृ० 236 / 2. 'रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् / यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ।।'-आप्तस्वरूप / 3. 'अतीयाजातयोर्वापि न च स्यादनृतार्थता। वाचः कस्याश्चिदित्येषा बौद्धार्थविषया मतः // ' -प्रमाणवा० 3 / 207 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org