________________ प्रमाणमीमांसा 271 नहीं है। बहुतसे पुराने मकान, कुएँ, खंडहर आदि ऐसे उपलब्ध होते हैं, जिनके कर्ताओं या बनानेवालोंका स्मरण नहीं है, फिर भी वे अपौरुषेय नहीं हैं। अपौरुषेय होना प्रमाणताका साधक भी नहीं है। बहुतसे लौकिकम्लेच्छादि ध्यवहार-गाली-गलौज आदि ऐसे चले आते हैं, जिनके कर्ताका कोई स्मरण नहीं है, पर इतने मात्रसे वे प्रमाण नहीं माने जा सकते / 'वटे वटे वैश्रवणः' इत्यादि अनेक पदवाक्य परम्परासे कर्त्ताके स्मरणके बिना ही चले आते हैं, पर वे प्रमाणकोटिमें शामिल नहीं है / पुराणोंमें वेदको ब्रह्माके मुखसे निकला हुआ बताया है। और यह भी लिखा है कि प्रतिमन्वतरमें भिन्न-भिन्न वेदोंका विधान होता है। "यो वेदांश्च प्रहिणोति' इत्यादि वाक्य वेदके कर्ताके प्रतिपादक हैं ही। जिस तरह याज्ञवल्क्य स्मृति और पुराण ऋषियोंके नामोंसे अंकित होनेके कारण पौरुषेय हैं, उसी तरह काण्व, माध्यन्दिन, तैत्तिरीय आदि वेदको शाखाएँ भी ऋषियोंके नामसे अंकित पायी जाती हैं, अतः उन्हें अनादि या अपौरुषेय कैसे कहा जा सकता है ? वेदोंमें न केवल ऋषियोंक ही नाम3 पाये जाते हैं; किन्तु उनमें अनेक ऐतिहासिक राजाओं, नदियों और देशोंके नामोंका पाया जाना इस बातका प्रमाण है कि वे उन-उन परिस्थितियोंमें बने हैं / बौद्ध वेदोंको अष्टक ऋषिकर्तक कहते हैं तो जैन उन्हें कालासुरकर्तृक बताते हैं / अतः उनके कर्तृविशेषमें तो विवाद हो सकता है, किन्तु 'वे पौरुषेय हैं और उनका कोई-न-कोई बनानेवाला अवश्य है' यह विवादकी बात नहीं है। ___'वेदका अध्ययन सदा वेदाध्ययनपूर्वक ही होता है, अतः वेद अनादि है' यह दलील भी पुष्ट नहीं है; क्योंकि 'कण्व आदि ऋषियोंने काण्वादि शाखाओंकी रचना नहीं की, किन्तु अपने गुरुसे पढ़कर ही उनने उसे प्रकाशित किया' यह सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रमाण नहीं है। इस तरह तो यह भी कहा जा सकता है कि महाभारत भी व्यासने स्वयं नहीं बनाया; किन्तु अन्य महाभारतके अध्ययनसे उसे प्रकाशित किया है। 1. प्रतिमन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्या विधीयते--मत्स्यपु० 145 / 58 : 2. श्वेता० 6 / 18 / 3. सजन्ममरणपिंगोत्रचरणादिनामश्रुतेः / अनेकपदसंहतिप्रतिनियमसन्दर्शनात् / फलार्थिपुरुषप्रवृत्तिनिवृत्तिहेत्वात्मनाम् / श्रुतेश्च मनुसूत्रत्रत् पुरुषकर्तृकैव श्रुतिः ॥'-पात्रकेसरितोत्र श्लो० 14 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org