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________________ 272 जैनदर्शन इसी तरह कालको हेनु बनाकर वर्तमान कालकी तरह अतीत और अनागत कालको वेदके कर्तासे शून्य कहना बहुत विचित्र तर्क है / इस तरह तो किसी भी अनिश्चित कर्तृक वस्तुको अनादि अनन्त सिद्ध किया जा सकता है। हम कह सकते हैं कि महाभारतका बनानेवाला अतीत कालमें नहीं था, क्योंकि वह काल है जैसे कि वर्तमानकाल / जब वैदिक शब्द लौकिक शब्दके समान ही संकेतग्रहणके अनुसार अर्थका बोध कराते हैं और बिना उच्चारण किये पुरुषको सुनाई नहीं देते तब ऐसी कौन-सी विशेषता है जिससे कि वैदिक शब्दोंको अपौरुषेय कहा जाय ? यदि कोई एक भी व्यक्ति अतीन्द्रियार्थद्रष्टा नहीं हो सकता तो वेदोंकी अतीन्द्रियार्थप्रतिपादकतामें विश्वास कैसे किया जा सकता है ? वैदिक शब्दोंकी अमुक छन्दोंमें रचना है। वह रचना बिना किसी पुरुषप्रयत्नके अपने आप कैसे हो गई ? यद्यपि मेघगर्जन आदि अनेकों शब्द पुरुषप्रयत्नके बिना प्राकृतिक संयोग-वियोगोंसे होते हैं परन्तु वे निश्चित अर्थके प्रतिपादक नहीं होते और न उनमें सुसंगत छन्दोरचना और व्यवस्थितता ही देखी जाती है। अतः जो मनुष्यकी रचनाके समान ही एक विशिष्ट रचनामें आबद्ध है वे अपौरुषेय नहीं हो सकते। ___ अनादि परम्परा रूप हेतुसे वेदको अतीन्द्रियार्थप्रतिपादकताको सिद्धि करना उसी तरह कठिन है जिस तरह गाली-गलौज आदिकी प्रामाणिकता सिद्ध करना / अन्ततः वेदके व्याख्यानके लिए भी अतीन्द्रियार्थदर्शी ही अन्तिम प्रमाण बन सकता है / विवादकी अवस्थामें 'यह मेरा अर्थ है यह नहीं' यह स्वयं शब्द तो बोलेंगे नहीं। यदि शब्द अपने अर्थके मामले में स्वयं रोकनेवाला होता तो वेदकी व्याख्याओंमें मतभेद नहीं होना चाहिये था। शब्दमात्रको नित्य मानकर वेदके नित्यत्वका समर्थन करना भी प्रतीतिसे विरुद्ध है; क्योंकि तालु आदिके व्यापारसे पुद्गलपर्यायरूप शब्दकी उत्पत्ति ही प्रमाणसिद्ध है, अभिव्यक्ति नहीं। संकेतके लिये शब्दको नित्य मानना भी उचित नहीं है; क्योंकि जैसे अनित्य घटादि पदार्थोंमें अमुक घड़ेके नष्ट होनेपर भी अन्य सदृश घड़ोंसे सादृश्यमूलक व्यवहार चल जाता है उसी तरह जिस शब्दमें संकेतग्रहण किया है वह भले ही नष्ट हो जाय, पर उसके सदृश अन्य शब्दोंमें वाचकव्यवहारका होना अनुभवसिद्ध है। यह वही शब्द है, जिसमें मैंने संकेत ग्रहण किया था' इस प्रकारका एकत्वप्रत्यभिज्ञान भी भ्रान्तिके कारण ही होता है; क्योंकि जब हम उस सरीखे दूसरे शब्दको सुनते हैं, तो दीपशिखाकी तरह भ्रमवश उसमें एकत्वका भान हो जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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