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________________ 270 जैनदर्शन है 'नहीं हो सकता', जब कि जैन परम्परा यह कहतो है कि 'जिस पुरुषने वीतरागता और तत्त्वज्ञता प्राप्त कर ली है उसे किसी शास्त्र या आगमके आधारकी या नियन्त्रणकी आवश्यकता नहीं रहती। वह स्वयं शास्त्र बनाता है, परम्पराएँ रचता है और सत्यको युगशरीरमें प्रकट करता है। अतः मध्यकालीन व्यवस्थाके लिए आगमिक क्षेत्र आवश्यक और उपयोगी होनेपर भी उसकी प्रतिष्ठा सार्वकालिक और सब पुरुषोंके लिए एक-सी नहीं है। ___ एक कल्पकालमें चौबीस तीर्थङ्कर होते हैं / वे सब अक्षरशः एक ही प्रकारका उ देश देते हों, ऐसी अधिक सम्भावना नहीं है; यद्यपि उन सबका तत्त्वसाक्षात्कार और वीतरागता एक-जैसी ही होती है। हर तीर्थङ्करके समय विभिन्न व्यक्तियोंकी परिस्थितियाँ जुदे-जुदे प्रकारकी होती हैं, और वह उन परिस्थितियों में उलझे हुए भव्य जीवोंको सुलटने और सुलझनेका मार्ग बताता है। यह ठीक है कि व्यक्तिकी मुक्ति और विश्वकी शान्तिके लिए अहिंसा, परिग्रह, अनेकान्तदृष्टि और व्यक्तिस्वातन्त्र्यके सिद्धान्त त्रैकालिक हैं। इन मूल सिद्धान्तोंके साक्षात्कारमें किसी भी तीर्थङ्करको मतभेद नहीं हुआ; क्योंकि मूल सत्य दो प्रकारका नहीं होता। परन्तु उस मूल सत्यको जीवनव्यवहारमें लानेके प्रकार व्यक्ति, समाज, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिकी दृष्टिसे अनन्त प्रकारके हो सकते हैं। यह बात हम सबके अनुभवको है। जो कार्य एक समयमें अमुक परिस्थितिमें एकके लिए कर्त्तव्य होता है, वही उसी व्यक्तिको परिस्थिति बदलनेपर अखरता है। अतः कर्त्तव्याकर्त्तव्य और धर्माधर्मकी मूल आत्मा एक होनेपर भी उसके परिस्थिति-शरीर अनेक होते हैं, पर सत्यासत्यका निर्णय उस मूल आत्माकी संगति और असंगतिसे होता है / जैन परम्पराकी यह पद्धति श्रद्धा और तर्क दोनोंको उचित स्थान देकर उनका समन्वय करती है। वेदापौरुषेयत्व विचारः ___हम पहले लिख चुके हैं कि मीमांसक पुरुषमें पूर्ण ज्ञान और वीतरागताका विकास नहीं मानता और धर्मप्रतिपादक वेदवाक्यको किसी पुरुषविशेषकी कृति न मानकर उसे अपौरुषेय या अकर्तृक मानता है। उस अपौरुषेयत्वकी सिद्धिके लिए 'अस्मर्यमाण कर्तृकत्व' हेतु दिया जाता है। इसका अर्थ है कि यदि वेदका कोई कर्ता होता तो उसका स्मरण होना चाहिये था चंकि स्मरण नहीं है, अतः वेद अनादि है और अपौरुयेय है। किन्तु, कर्ताका स्मरण नहीं होना किसीकी अनादिता और नित्यताका प्रमाण नहीं हो सकता। नित्य वस्तु अकर्तृक ही होती है / कर्ताका स्मरण होने और न होनेसे पौरुषेयता या अपौरुषेयताका कोई सम्बन्ध For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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