SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणमीमांसा 269 “जो हेउवायपक्खम्सि हेउओ आगमम्मि आगमओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अण्णो // " -सन्मति० 3145 / आचार्य 'समन्तभद्रने इस सम्बन्धमें निम्नलिखित विचार प्रकट किये हैं कि जहाँ वक्ता अनाप्त, अविश्वसनीय, अतत्त्वज्ञ और कषायकलुष हों वहाँ हेतुसे ही तत्त्वकी सिद्धि करनी चाहिए और जहाँ वक्ता आप्त-सर्वज्ञ और वीतराग हो वहाँ उसके वचनोंपर विश्वास करके भी तत्त्वसिद्धि की जा सकती है। पहला प्रकार हेतुसाधित कहलाता है और दूसरा प्रकार आगमसाधित / मूलमें पुरुषके अनुभव और साक्षात्कारका आधार होनेपर भी एक बार किसी पुरुषविशेषमें आप्तताका निश्चय हो जानेपर उसके वाक्यपर विश्वास करके चलनेका मार्ग भी है / लेकिन यह मार्ग बीचके समयका है। इससे पुरुषकी बुद्धि और उसके तत्त्वसाक्षात्कारको अन्तिम प्रमाणताका अधिकार नहीं छिनता / जहाँ वक्ताकी अनाप्तता निश्चित है वहाँ उसके वचनोंको या तो हम तर्क और हेतुसे सिद्ध करेंगे या फिर आप्तवक्ताके वचनोंको मूल आधार मानकर उससे संगति बैठनेपर ही उनकी प्रमाणता मानेंगे। इस विवेचनसे इतना तो समझमें आ जाता है कि वक्ताकी आप्तता और अनाप्तताका निश्चय करनेकी जिम्मेवारी अन्ततः युक्ति और तर्कपर ही पड़ती है। एक बार निश्चय हो जानेके बाद फिर प्रत्येक युक्ति या हेतु ढंढो या न ढूंढ़ो, उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। चाल जीवनके लिए यही मार्ग प्रशस्त हो सकता है / बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनमें युक्ति और तर्क नहीं चलता, उन बातोंको हमें आगमपक्षमें डालकर वक्ताके आप्तत्वके भरोसे ही चलना होता है, और चलते भी हैं। परन्तु वैदिक परम्पराके समान अन्तिम निर्णय अकर्तृक शब्दोंके आधीन नहीं है। यही कारण है कि प्रत्येक जैन आचार्य अपने नूतन ग्रन्थके प्रारम्भमें उस ग्रन्थकी परम्पराको सर्वज्ञ तक ले जाता है और इस बातका विश्वास दिलाता है कि उसके प्रतिपादित तत्त्व कपोल-कल्पित न होकर परम्परासे सर्वज्ञप्रतिपादित ही हैं / ____तर्ककी एक सीमा तो है ही। पर हमें यह देखना है कि अन्तिम अधिकार किसके हाथमें हैं ? क्या मनुष्य केवल अनादिकालसे चली आई अकर्तृक परम्पराओंके यन्त्रजालका मूक अनुसरण करनेवाला एक जन्तु ही है या स्वयं भी किसी अवस्थामें निर्माता और नेता हो सकता है ? वैदिक परम्परामें इसका उत्तर 1. “वक्तर्यनाप्ते यद्धेतीः साध्यं तद्धेतुसाधितम् / आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात् साधितमागमसाधितम् // " -आप्तमी० श्लो० 78 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy