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________________ जैनदर्शन निष्पक्ष रहकर धर्मका प्रतिपादन कर सके। पुरुष प्रायः अनृतवादी होते हैं / उनके वचनोंपर पूरा-पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। वैदिक परम्परामें ही जिन नैयायिक आदिने नित्य ईश्वरको वेदका कर्ता कहा है उसके विषयमें भी मीमांसकका कहना है कि किसी ऐसे समयकी कल्पना ही नहीं की जा सकती कि जब वेद न रहा हो। ईश्वरकी सर्वज्ञता भी उसके वेदमय होनेके कारण ही सिद्ध होती है, स्वतः नहीं / तात्पर्य यह कि जहाँ वैदिक परम्परामें धर्मका अन्तिम और निर्बाध अधिकारसूत्र वेदके हाथमें है, वहाँ जैन परम्परामें धर्मतीर्थका प्रवर्तन तीर्थङ्कर ( पुरुषविशेष ) करते हैं। वे अपनी साधनासे पूर्ण वीतरागता और तत्त्वज्ञता प्राप्तकर धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के भी साक्षात्द्रष्टा हो जाते हैं। उनके लोकभाषामें होनेवाले उपदेशोंका संग्रह और विभाजन उनके शिष्य गणधर करते हैं। यह कार्य द्वादशांग-रचनाके नामसे प्रसिद्ध है / वैदिक परम्परामें जहाँ किसी धर्मके नियम और उपनियममें विवाद उपस्थित होता है तो उसका समाधान वेदके शब्दोंमें ढूंढ़ना पड़ता है जब कि जैन परम्परामें ऐसे विवादके समय किसी भी वीतराग तत्त्वज्ञके वचन निर्णायक हो सकते हैं। यानी पुरुष इतना विकास कर लेता है कि वह स्वयं तीर्थङ्कर बनकर तीर्थ ( धर्म ) का प्रवर्तन भी करता है। इसीलिए उसे 'तीर्थङ्करोतीति तीर्थङ्करः' तीर्थङ्कर कहते हैं। वह केवल तीर्थज्ञ ही नहीं होता। इस तरह मूलरूपमें धर्मके कर्ता और मोक्षमार्गके नेता हो धर्मतीर्थके प्रवर्तक होते हैं / आगे उन्हीं के वचन ‘आगम' कहलाते हैं। ये सर्व प्रथम गणधरोंके द्वारा 'अङ्गश्रुत' के रूपमें ग्रथित होते हैं। इनके शिष्य-प्रशिष्य तथा अन्य आचार्य उन्हीं आगम-ग्रन्थोंका आधार लेकर जो नवीन ग्रन्थ-रचना करते हैं वह 'अंगबाह्य साहित्य कहलाता है। दोनोंकी प्रमाणताका मूल आधार पुरुषका निर्मल ज्ञान ही है ! यद्यपि आज वैसे निर्मल ज्ञानी साधक नहीं होते, फिर भी जब वे हुए थे तब उन्होंने सर्वज्ञप्रणीत आगमका आधार लेकर ही धर्मग्रन्थ रचे थे। ___ आज हमारे सामने दो ज्ञानक्षेत्र स्पष्ट खुले हुए हैं-एक तो वह ज्ञानक्षेत्र, जिसमें हमारा प्रत्यक्ष, युक्ति तथा तर्क चल सकते है और दूसरा वह क्षेत्र, जिसमें तर्क आदिकी गुञ्जाइश नहीं होती, अर्थात् एक हेतुवाद पक्ष और दूसरा आगमवाद पक्ष / इस सम्बन्धमें जैन आचार्योंने अपनी नीति बहुत विचारके बाद यह स्थिर की है कि हेतुवादपक्षमें हेतुसे और आगमवादपक्षमें आगमसे व्यवस्था करनेवाला स्वसमयका प्रज्ञापक-आराधक होता है और अन्य सिद्धान्तका विराधक होता है। जैसा कि आचार्य सिद्धसेनकी इस गाथासे स्पष्ट है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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