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________________ प्रमाणमीमांसा 267 आगमप्रमाणमें मुख्यतया तीर्थङ्करकी वाणीके आधारसे साक्षात् या परंपरासे निबद्ध ग्रन्थविशेषोंको लेकर भी उसके व्यावहारिक पक्षको नहीं छोड़ा है। व्यवहार में प्रामाणिक वक्ताके शब्दको सुनकर या हस्तसंकेत आदिको देखकर संकेतस्मरणसे जो भी ज्ञान उत्पन्न होता है, वह आगम प्रमाणमें शामिल है। आगमवाद और हेतुवादका क्षेत्र अपना-अपना निश्चित है-अर्थात् आगमके बहुतसे अंश ऐसे हो सकते हैं, जहाँ कोई हेतु या युक्ति नहीं चलती / ऐसे विषयोंमें युक्तिसिद्ध वचनोंकी एककर्तृकतासे युक्त्यसिद्ध वचनोंका भी प्रमाण मान लिया जाता है। आगमवाद और हेतुवाद : जैन परम्पराने वेदके अपौरुषेयत्व और स्वतः प्रामाण्यको नहीं माना है / उसका कारण यह है कि कोई भी ऐसा शब्द, जो धर्म और उसके नियम-उपनियमोंका विधान करता हो, वीतराग और तत्त्वज्ञ पुरुषका आधार पाये बिना अर्थबोध नहीं करा सकता / जिनकी शब्द-रचनामें एक सुनिश्चित क्रम, भावप्रवणता और विशेष उद्देश्यकी सिद्धि करनेका प्रयोजन हो, वे वेद बिना पुरुषप्रयत्नके चले आये, यह संभव नहीं, अर्थात् अपौरुषेय नहीं हो सकते / वैसे मेघगर्जन आदि बहुतसे शब्द ऐसे होते हैं जिनका कोई विशेष अर्थ या उद्देश्य नहीं होता, वे भले ही अपौरुषेय हों; पर उनसे किसी विशेष प्रयोजनकी सिद्धि नहीं हो सकती। वेदको अपौरुषेय माननेका मुख्य प्रयोजन था-पुरुषकी शक्ति और तत्त्वज्ञतापर अविश्वास करना। यदि पुरुषोंकी बुद्धिको स्वतन्त्र विचार करनेकी छूट दी जाती है तो किसी अतीन्द्रिय पदार्थके विषयमें कोई एक निश्चित मत नहीं बन सकता था / धर्म ( यज्ञ आदि ) इस अर्थमें अतीन्द्रिय है कि उसके अनुष्ठान करनेसे जो संस्कार या अपूर्व पैदा होता है; वह कभी भी इन्द्रियोंके द्वारा ग्राह्य नहीं होता, और न उसका फल स्वर्गादि ही इन्द्रियग्राह्य होते हैं। इसीलिए 'परलोक है या नहीं' यह बात आज भी विवाद और संदेहकी बनी हुई है। मीमांसकने मुख्यतया पुरुषकी धर्मज्ञताका ही निषेध किया है। उसका कहना है कि धर्म और उसके नियम-उपनियमोंको वेदके द्वारा जानकर बाकी संसारके सब पदार्थोंका यदि कोई साक्षात्कार करता है तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। सिर्फ धर्ममें अन्तिम प्रमाण वेद ही हो सकता है, पुरुषका अनुभव नहीं। किसी भी पुरुषका ज्ञान इतना विशुद्ध और व्यापक नहीं हो सकता कि वह धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोंका भी परिज्ञान कर सके, और न पुरुषमें इतनी वीतरागता आ सकती है, जिससे वह पूर्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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