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________________ 266 जैनदर्शन प्रकारका है। यह वर्णन आगमिकदृष्टिसे है। जैन परम्परामें श्रुतप्रमाणके नामसे इन्हीं द्वादशांग और द्वादशांगानुसारी अन्य शास्त्रोंको आगम या श्रुतकी मर्यादामें लिया जाता है / इसके मूलकर्ता तीर्थङ्कर हैं और उत्तरकर्ता उनके साक्षात् शिष्य गणधर तथा उत्तरोत्तर कर्ता प्रशिष्य आदि आचार्यपरम्परा है। इस घ्याख्यासे आगम प्रमाण या श्रुत वैदिक परम्पराके 'श्रुति' शब्दकी तरह अमुक ग्रन्थों तक ही सीमित रह जाता है। परन्तु परोक्ष आगम प्रमाणसे इतना ही अर्थ इष्ट नहीं है, किन्तु व्यवहारमें भी अविसंवादी और अवंचक आप्तके वचनोंको सुनकर जो अर्थबोध होता है, वह भी आगमकी मर्यादामें आता है / इसलिए अकलंकदेव ने आप्तका व्यापक अर्थ किया है कि जो जिस विषयमें अविसंवादक है वह उस विषयमें आप्त है / आप्तताके लिए तद्विषयक ज्ञान और उस विषयमें अविसंवादकता या अवंचकताका होना ही मुख्य शर्त है / इसलिए व्यवहारमें होनेवाले शब्दजन्य अर्थबोधको भी एक हदतक आगमप्रमाणमें स्थान मिल जाता है। जैसे कोई कलकत्तेका प्रत्यक्षद्रष्टा यात्री आकर कलकत्तेका वर्णन करे तो उन शब्दोंको सुनकर वक्ताको प्रमाण माननेवाले श्रोताको जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी आगमप्रमाणमें शामिल है। वैशेषिक और बौद्ध आगमज्ञानको भी अनुमानप्रमाणमें अन्तर्भूत करते हैं / परन्तु शब्दश्रवण, संकेतस्मरण आदि सामग्रीसे लिङ्गदर्शन और व्याप्तिस्मरणके बिना ही होनेवाला यह आगमज्ञान अनुमानमें शामिल नहीं हो सकता / श्रुत या आगमज्ञान केवल आप्तके शब्दोंसे ही उत्पन्न नहीं होता, किन्तु हाथके इशारे स्मरण ही मुख्य प्रयोजक है। श्रुतके तीन भेद : अकलंकदेवने प्रमाणसंग्रहमें श्रुतके प्रत्यक्षनिमित्तक, अनुमाननिमित्तक तथा आगमनिमित्तक ये तीन भेद किये हैं। परोपदेशकी सहायता लेकर प्रत्यक्षसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत प्रत्यक्षपूर्वक श्रुत है, परोपदेशसहित लिंगसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत अनुमानपूर्वक श्रुत और केवल परोपदेशसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत आगमनिमित्तक श्रुत है / जैनतर्कवार्तिककार प्रत्यक्षपूर्वक श्रुतको नहीं मानकर परोपदेशज और लिङ्गनिमित्तक ये दो ही श्रुत मानते हैं। तात्पर्य यह कि जैनपरंपराने 1. "यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तः, ततः परोऽनाप्तः। तत्वप्रतिपादनमविसंवादः, तदर्थ ज्ञानात् / " -अष्टश०, अष्टसह पृ० 236 / 2. "श्रुतमविप्लवं प्रत्यक्षानुमानागमनिमित्तम् ।"-प्रमाणसं० पृ० 1 / 3. जैनतर्कवार्तिक पृ० 74 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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