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________________ प्रमाणमीमांसा निधित्व नहीं कर सकता / द्वितीय विकल्प ही उचित मालूम पड़ता है कि प्रकृति, प्रत्यय आदिके विभागसे जो अर्थ उस पत्रवाक्यसे प्रतीत होता हो, उसीका साधन और दूषण शास्त्रार्थमें होना चाहिये / इसमें प्रकरण आदिसे जितने भी अर्थ सम्भव हों वे सब उस पत्रवाक्यके अर्थ माने जायगे / इसमें वादीके द्वारा इष्ट होनेकी शर्त नहीं लगाई जा सकती; क्योंकि जब शब्द प्रमाण है तब उससे प्रतीत होनेवाले समस्त अर्थ स्वीकार किये ही जाने चाहिये। तीसरे विकल्पमें विवादका प्रश्न इतना ही रह जाता है कि कोई अर्थ शब्दसे प्रतीत हुआ और वही वादीके मनमें भी था, फिर भी यदि दुराग्रहवश वादी यह कहनेको उतारू हो जाय कि 'यह मेरा अर्थ ही नहीं है, तो उस समय कोई नियन्त्रण नहीं रखा जा सकेगा। अतः इसका एकमात्र सीधा मार्ग है कि जो प्रसिद्धिके अनुसार उन शब्दोंसे प्रतीत हो, वही अर्थ माना जाय। ___ यद्यपि वाक्य श्रोत्र-इन्द्रियके द्वारा सुने जानेवाले पदोंके समुदाय रूप होते हैं और पत्र होता है एक कागजका लिखित टुकड़ा, फिर भी उसे उपचरितोपचार विधिसे वाक्य कहा जा सकता है / यानी कानसे सुनाई देनेवाले पदोंका सांकेतिक लिपिके आकारोंमें उपचार होता है और लिपिके आकारोंमें उपचरित वाक्यका कागज आदि पर लिखित पत्रमें उपचार किया जाता है। अथवा पत्र-वाक्यकी 'पदोंका त्राण अर्थात प्रतिवादीसे रक्षण हो जिन वाक्योंके द्वारा, उसे पत्रवाक्य कहते हैं' इस व्युत्पत्तिके अनुसार मुख्यरूपसे कानसे सुनाई देनेवाले वाक्यको पत्रवाक्य कह सकते हैं। 5. आगम-श्रुत : ___ मतिज्ञानके बाद जिस दूसरे ज्ञानका परोक्षरूपसे वर्णन मिलता है, वह है श्रुतज्ञान / परोक्ष प्रमाणमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान मतिज्ञानकी पर्यायें हैं जो मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रकट होती हैं। श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे जो श्रुत प्रकट होता है, उसका वर्णन सिद्धान्त-आगमग्रन्थोंमें भगवान् महावीरकी पवित्र वाणीके रूपमें पाया जाता है। तीर्थङ्कर जिस अर्थको अपनी दिव्य-ध्वनिसे प्रकाशित करते हैं, उसका द्वादशांगरूपमें ग्रथन गणधरोंके द्वारा किया जाता है। यह श्रुत अंगप्रविष्ट कहा जाता है और जो श्रुत अन्य आरातीय शिष्यप्रशिष्योंके द्वारा रचा जाता है, वह अंगबाह्य श्रत है। अंग-प्रविष्ट श्रुतके आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतकृतदश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ये बारह भेद हैं / अंगबाह्य श्रुत कालिक, उत्कालिक आदिके भेदसे अनेक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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