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________________ 264 जैनदर्शन भी वह जयी ही होगा। इसी तरह प्रतिवादी वादीके पक्षमें यथार्थ दूषण देकर यदि अपने पक्ष की सिद्धि कर लेता है, तो वह भी वचनाधिक्य करनेके कारण पराजित नहीं हो सकता। इस व्यवस्थामें एक साथ दोनोंका जय या पराजयका प्रसंग नहीं आ सकता / एककी स्वपक्षसिद्धिमें दूसरेके पक्षका निराकरण गर्भित है ही, क्योंकि प्रतिपक्षकी असिद्धि बताये बिना स्वपक्षकी सिद्धि परिपूर्ण नहीं होती। ___ पक्षके ज्ञान और अज्ञानसे जय-पराजय व्यवस्था माननेपर तो पक्षप्रतिपक्षका परिग्रह करना ही व्यर्थ हो जाता हैं; क्योंकि किसी एक ही पक्ष में वादी और प्रतिवादीके ज्ञान और अज्ञानकी जाँच की जा सकती है / पत्र-वाक्य : लिखित शास्त्रार्थमें वादी और प्रतिवादी परस्पर जिन लेख-प्रतिलेखोंका आदान-प्रदान करते हैं, उन्हें पत्र कहते है। अपने पक्षको सिद्धि करनेवाले निर्दोष और गूढ़ पद जिसमें हों, जो प्रसिद्ध अवयववाला हो तथा निर्दोष हो वह पत्र' है / पत्रवाक्यमें प्रतिज्ञा और हेतु ये दो अवयव ही पर्याप्त हैं, इतने मात्रसे व्युत्पन्नको अर्थप्रतीति हो जाती है / अव्युत्पन्न श्रोताओंकी अपेक्षा तीन अवयव, चार अवयव और पाँच अवयवोंवाला भी पत्रवाक्य हो सकता है। पत्रवाक्यमें प्रकृति और प्रत्ययोंको गुप्त रखकर उसे अत्यन्त गूढ़ बनाया जाता है, जिससे प्रतिवादी सहज ही उसका भेदन न कर सके / जैसे—'विश्वम् अनेकान्तात्मकं प्रमेयत्वात्' इस अनुमानवाक्यके लिये यह गूढ़ पत्र प्रस्तुत किया जाता है "स्वान्तभासितभूत्याद्ययन्तात्मतदुभान्तवाक् / परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीत स्वात्मकत्वतः // " -प्रमेयक० पृ० 685 / जब कोई वादी पत्र देता है और प्रतिवादी उसके अर्थको समझकर खण्डन करता है, उस समय यदि वादी यह कहे कि 'यह मेरे पत्रका अर्थ नहीं है'; तब उससे पूछना चाहिए कि 'जो आपके मनमें है वह इसका अर्थ है ? या जो इस वाक्यरूप पत्रसे प्रतीत होता है वह है, या जो आपके मनमें भी है और वाक्यसे प्रतीत भी होता है ?' प्रथम विकल्पमें पत्रका देना ही निरर्थक है; क्योंकि जो अर्थ आपके मनमें मौजूद है उसका जानना ही कठिन है, यह पत्रवाक्य तो उसका प्रति 1. 'प्रसिद्धावयवं स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् / / साधु गूढपदप्राय पत्रमाहुरनाकुलम् ॥'-पत्रप० पृ० 1 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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