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________________ प्रमाणमीमांसा 261 थोड़ा-सा भंग होनेपर सत्यसाधनवादीके हाथमें भी पराजय आ सकती है और दुष्ट साधनवादी इन अनु शासनके नियमोंको पालकर जयलाभ भी कर सकता है। तात्पर्य यह कि यहाँ शास्त्रार्थके नियमोंका बारीकीसे पालन करने और न करनेका प्रदर्शन ही जय और पराजयका आधार हुआ; स्वपक्षसिद्धि या परपक्षदूषण जैसे मौलिक कर्त्तव्य नहीं। इसमें इस बातका ध्यान रखा गया है कि पञ्चावयववाले अनुमानप्रयोगमें कुछ कमी-बेसी और क्रमभंग यदि होता है तो उसे पराजयका कारण होना ही चाहिए। धर्मकीर्ति आचार्यने इन छल, जाति और निग्रहस्थानों के आधारसे होने वाली जय-पराजय-व्यवस्थाका खण्डन करते हुए लिखा है कि जयपराजयकी व्यवस्थाको इस प्रकार घुटालेमें नहीं रखा जा सकता। किसी भी सच्चे साधनवादीका मात्र इसलिए निग्रह होना कि 'वह कुछ अधिक बोल गया या कम बोल गया या उसने अमुक कायदेका बाकायदा पालन नहीं किया' सत्य, अहिंसा और न्यायकी दृष्टिसे उचित नहीं है। अतः वादी और प्रतिवादीके लिए क्रमशः असाधनांगवचन और अदोषोद्भावन ये दो ही निग्रहस्थान' मानना चाहिये / वादीका कर्तव्य है कि वह निर्दोष और पूर्ण साधन बोले, और प्रतिवादीका कार्य है कि वह यथार्थ दोषोंका उद्भावन करे / यदि वादी सच्चा साधन नहीं बोलता या जो साधनके अंग नहीं है ऐसे वचन कहता है यानी साधनांगका अवचन या असाधनांगका वचन करता है तो उसकी असाधनांग वचन होनेसे पराजय होगी। इसी तरह प्रतिवादी यदि यथार्थ दोषोंका उद्भावन न कर सके या जो वस्तुतः दोष नहीं हैं उन्हें दोषकी जगह बोले तो दोषानुभावन और अदोषोद्भावन होनेसे उसकी पराजय अवश्यंभावी है। __ इस तरह सामान्यलक्षण करनेपर भी धर्मकीति फिर उसी घपलेमें पड़ गये हैं। 2 उन्होंने असाधनांग वचन और अदोषोद्भावनके विविध व्याख्यान करके कहा है कि अन्वय या व्यतिरेक किसी एक दृष्टान्तसे ही साध्यकी सिद्धि जब संभव है तब दोनों दृष्टान्तोंका प्रयोग करना असाधनाङ्गवचन होगा। त्रिरूप हेतुका वचन साधनांग है। उसका कथन न करना असाधनांग है। प्रतिज्ञा, निगमन आदि साधनके अंग नहीं हैं, उनका कथन असाधनांग है। इसी तरह उनने अदोषोद्भावनके भी विविध व्याख्यान किये हैं। यानी कुछ कम बोलना या अधिक बोलना, 1. "असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः / निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ॥"-वादन्याय पृ० 1 / 2. देखो, वादन्याय, प्रथम प्रकरण / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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