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________________ 260 जैनदर्शन वचनको वाद कहते हैं। वितण्डा' वादाभास है, जिसमें वादी अपना पक्षस्थापन नहीं करके मात्र खण्डन-ही-खण्डन करता है, जो सर्वथा त्याज्य है / न्यायदीपिका (पृ० 79 ) तत्त्वनिर्णय या तत्त्वज्ञानके विशुद्ध प्रयोजनसे जय-पराजयकी भावनासे रहित गुरु-शिष्य या वीतरागी विद्वानोंमें तत्त्वनिर्णय तक चलनेवाले वचनव्यवहारको पराजयपर्यन्त चलनेवाले वचनव्यवहारको विजिगीषु कथा कहा है।। वीतराग कथा सभापति और सभ्योंके अभावमें भी चल सकती है, और जब भी आवश्यक है। सभापतिके बिना जय और पराजयका निर्णय कौन देगा? और उभयपक्षवेदी सभ्योंके बिना स्वमतोन्मत्त वादिप्रतिवादियोंको सभापतिके अनुशासनमें रखनेका कार्य कौन करेगा ? अतः वाद चतुरंग होता है। जय-पराजयव्यवस्था : नैयायिकोंने जब जल्प और वितण्डामें छल, जाति और निग्रहस्थानका प्रयोग स्वीकार कर लिया, तब उन्हींके आधारपर जयपराजयकी व्यवस्था बनी। इन्होंने प्रतिज्ञाहानि आदि बाईस निग्रहस्थान माने हैं / सामान्यसे 'विप्रतिपत्ति-विरुद्ध या स्थापितका प्रतिषेध नहीं करना तथा प्रतिषिद्ध स्वपक्षका उद्धार नहीं करना' ये दो ही निग्रहस्थान3-पराजयस्थान होते हैं। इन्हीं के विशेष भेद प्रतिज्ञाहानि आदि बाईस हैं। जिनमें बताया है कि यदि कोई वादी अपनी प्रतिज्ञाकी हानि करदे, दूसरा हेतु बोलदे, असम्बद्ध पद, वाक्य या वर्ण बोले, इस तरह बोले जिससे तीन बार कहने पर भी प्रतिवादी और परिषद् न रामझ सके, हेतु, दृष्टान्त आदिका क्रम भंग हो जाय, अवयव न्यून या अधिक कहे जाँय पुनरुक्ति हो, प्रतिवादी वादीके द्वारा कहे गये पक्षका अनुवाद न कर सके, उत्तर न दे सके, दूषणको अर्ध स्वीकार करके खण्डन करे, निग्रहयोग्यके लिए निग्रहस्थानका उद्भावन न कर सके, जो निग्रहयोग्य नहीं है, उसे निग्रहस्थान बतावे, सिद्धान्तविरुद्ध बोले, हेत्वाभासोंका प्रयोग करे तो निग्रहस्थान अर्थात् पराजय होगी। ये शास्त्रार्थके कानून हैं, जिनका 1. "तदाभासो वितण्डादिरभ्युपेताव्यवस्थितेः / " न्यायवि० 2 / 384 / 2. “यथोक्तोपपन्नः छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः / स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा।"-न्यायसू० 1 / 2 / 2-3 / 3. "विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् ।"---न्यायसू० 112:19 / 4. न्यायसू० 5 / 2 / 1 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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