________________ प्रमाणमीमांसा 259 साध्यकी तरह साधनोंकी भी पवित्रता : जैन तार्किक पहलेसे ही सत्य और अहिंसारूप धर्मकी रक्षाके लिए प्राणोंकी बाजी लगानेको सदा प्रस्तुत रहे हैं। उनके संयम और त्यागकी परम्परा साध्यकी तरह साधनोंकी पवित्रतापर भी प्रथमसे ही भार देती आयी है। यही कारण है कि जैन दर्शनके प्राचीन ग्रन्थोंमें कहींपर भी किसी भी रूपमें छलादिके प्रयोगका आपवादिक समर्थन भी नहीं देखा जाता। इसके एक ही अपवाद है, श्वेताम्बर परम्पराके अठारहवीं सदीके आचार्य यशोविजय। जिन्होंने वादद्वात्रिंशतिका में प्राचीन बौद्ध तार्किकोंकी तरह शासन-प्रभावनाके मोहमें पड़कर अमुक देशादिमें आपवादिक छलादिके प्रयोगको भी उचित मान लिया है। इसका कारण भी दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराकी मूल प्रकृतिमें समाया हुआ है। दिगम्बर निर्ग्रन्थ परम्परा अपनी कठोर तपस्या, त्याग और वैराग्यके मूलभूत अपरिग्रह और अहिंसारूपी धर्मस्तम्भोंमें किसी भी प्रकारका अपवाद किसी भी उद्देश्यसे स्वीकार करनेको तैयार नहीं रही, जब कि श्वेताम्बर परम्परा बौद्धोंकी तरह लोकसंग्रहकी ओर भी झुकी। चूंकि लोकसंग्रहके लिये राजसम्पर्क, वाद और मतप्रभावना आदि करना आवश्यक थे इसीलिये व्यक्तिगत चारित्रकी कठोरता भी कुछ मृदूतामें परिणत हुई। सिद्धान्तकी तनिक भी ढिलाई पानीकी तरह अपना रास्ता बनाती ही जाती है। दिगम्बरपरम्पराके किसी भी तर्कग्रन्थमें छलादिके प्रयोगके आपवादिक औचित्यका नहीं मानना और इन असद् उपायोंके सर्वथा परिवर्जनका विधान, उनकी सिद्धान्त-स्थिरताका ही प्रतिफल है। अकलंकदेवने इसी सत्य और अहिंसाकी दृष्टिसे ही छलादिरूप असद् उत्तरोंके प्रयोगको सर्वथा अन्याय्य और परिवर्जनीय माना है। अतः उनकी दृष्टिसे वाद और जल्पमें कोई भेद नहीं रह जाता। इसलिए वे संक्षेपमें समर्थवचनको वाद3 कहकर भी कहीं वादके स्थानमें जल्प शब्दका भी प्रयोग कर देते हैं। उनने बतलाया है कि मध्यस्थोंके समक्ष वादी और प्रतिवादियोंके स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषणरूप 1. “अयमेव विधेयस्तत्तत्वशेन तपस्विना / / देशाद्यपेक्षयाऽन्योऽपि विज्ञाय गुरुलाधवम् // " ---द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशतिका 86 / 2. देखो, सिद्धिविनिश्चय, जल्पसिद्धि ( 5 वाँ परिच्छेद ) / 3. "समर्थवचनं वाद:"-प्रमाणसं० श्लो० 51 / 4. “समर्थवचनं जल्पं चतुरङ्ग विदुर्बुधाः / पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना // " -सिद्धिवि०, 5 / 2 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org