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________________ 258 जैनदर्शन द्वारा ठगी जाकर कुमार्गमें न चली जाय, इस मार्ग-संरक्षणके उद्देश्यसे कारुणिक मुनिने छल आदि जैसे असत् उपायोंका भी उपदेश दिया है। वितण्डा कथामें वादी अपने पक्षके स्थापनकी चिन्ता न करके केवल प्रतिबादी पक्षों दूषण-ही-दूषण देकर उसका मुंह बन्द कर देता है, जब कि जल्प कथा परपक्ष खण्डनके साथ-ही-साथ स्वपक्ष-स्थापन भी आवश्यक होता है। इस तरह स्वमतसंरक्षणके उद्देश्यसे एक बार छल, जाति जैसे असत् उपायोंके अवलम्बनकी छूट होनेपर तत्त्वनिर्णय गौण हो गया; और शास्त्रार्थके लिए ऐसी नवीन भाषाकी सृष्टि की गई, जिसके शब्दजालमें प्रतिवादी इतना उलझ जाय कि वह अपना पक्ष ही सिद्ध न कर सके। इसी भूमिकापर केवल व्याप्ति, हेत्वाभास आदि अनुमानके अवयवोंपर सारे नव्यन्यायकी सृष्टि हुई। जिनका भीतरी उद्देश्य तत्त्वनिर्णयकी अपेक्षा तत्त्वसंरक्षण ही विशेष मालूम होता है ! चरकके विमानस्थानमें संधाय-संभाषा और विगह्य-सम्भाषा ये दो भेद उक्त वाद और जल्प वितण्डाके अर्थमें ही आये हैं। यद्यपि नैयायिकने छल आदिको असद् उत्तर माना है और साधारण अवस्थामें उसका निषेध भी किया है, परन्तु किसी भी प्रयोजनसे जब एक बार छल आदि घुस गये तो फिर जय-पराजयके क्षेत्रमें उन्हींका राज्य हो गया / बौद्ध परम्पराके प्राचीन उपायहृदय और तर्कशास्त्र आदिमें छलादिके प्रयोगका समर्थन देखा जाता है, किन्तु आचार्य धर्मकीर्तिने इसे सत्य और अहिंसाकी दृष्टिसे उचित न समझकर अपने वादन्याय ग्रन्थमें उनका प्रयोग सर्वथा अमान्य और अन्याय्य ठहराया है / इसका भी कारण यह है कि बौद्ध परम्परामें धर्मरक्षाके साथ संघरक्षाका भी प्रमुख स्थान है। उनके 'त्रिशरणमें बुद्ध और धर्मकी शरण जानेके साथ ही साथ संघके शरणमें भी जानेकी प्रतिज्ञा की जाती है। जब कि जैन परम्परामें संघशरणका कोई स्थान नहीं है / इनके 2 चतुःशरणमें अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्मकी शरणको ही प्राप्त होना बताया है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि संघरक्षा और संघप्रभावनाके उद्देश्यसे भी छलादि असद् उपायोंका अवलम्बन करना जो प्राचीन बौद्ध तकग्रन्थोंमें घुस गया उसमें सत्य और अहिंसाकी धर्मदष्टि कुछ गौण तो अवश्य हो गयी है / धर्मकीतिने इस असंगतिको समझा और हर हालतमें छल, जाति आदि असत् प्रयोगोंको वर्जनीय ही बताया है। 1. "बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्म सरणं गच्छामि, संघ सरणं गच्छामि / " 2. "चत्वारि सरणं पवज्जामि, अरहते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि / " / __-चत्तारि दंडक। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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