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________________ प्रमाणमीमांसा 257 जाय; क्योंकि उड़ते हुए पत्तोंके नीचे न गिरने रूप अभावसे आकाशमें वायुका सद्भाव माना जाता है और शुद्धभूतलग्राही प्रत्यक्षसे घटाभावका बोध तो प्रसिद्ध ही है / प्रागभावादिके स्वरूपसे तो इनकार नहीं किया जा सकता, पर वे वस्तुरूप ही हैं / घटका प्रागभाव मृत्पिडको छोड़कर अन्य नहीं बताया जा सकता। अभाव भावान्तररूप होता है, यह अनुभव सिद्ध सिद्धान्त है। अतः जब प्रत्यक्ष, प्रत्यभिज्ञान और अनुमान आदि प्रमाणोंके द्वारा ही उसका ग्रहण हो जाता है तब स्वतन्त्र अभावप्रमाण माननेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। कथा-विचार : परार्थानुमानके प्रसंगमें कथाका अपना विशेष स्थान है। पक्ष और प्रतिपक्ष ग्रहण कर वादी और प्रतिवादीमें जो वचन-व्यवहार स्वमतके स्थापन पर्यन्त चलता है उसे कथा कहते हैं। न्याय-परम्परामें कथाके तीन भेद माने गये हैं१. वाद, 2. जल्प और 3 वितण्डा / तत्त्वके जिज्ञासुओंकी कथाको या वीतरागकथाको वाद कहा जाता है। जय-पराजयके इच्छुक विजिगीषुओंकी कथा जल्प और वितण्डा है। दोनों कथाओंमें पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह आवश्यक है। २वादमें प्रमाण और तर्कके द्वारा स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण किये जाते हैं। इसमें सिद्धान्तसे अविरुद्ध पञ्चावयव वाक्यका प्रयोग अनिवार्य होनेसे न्यून, अधिक, अपसिद्धान्त और पाँच हेत्वाभास इन आठ निग्रहस्थानोंका प्रयोग उचित माना गया है / अन्य छल, जाति आदिका प्रयोग इस वादकथामें वर्जित है। इसका उद्देश्य तत्त्वनिर्णय करना है / 3जल्प और वितण्डामें छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे असत् उपायोंका अवलम्बन लेना भी न्याय्य माना गया है। इनका उद्देश्य तत्त्वसंरक्षण करना है और तत्त्वकी संरक्षा किसी भी उपायसे करनेमें इन्हें आपत्ति नहीं है / न्यायसूत्र ( 4 / 2150 ) में स्पष्ट लिखा है कि जिस तरह अंकुरकी रक्षाके लिए काँटोंकी बारी लगायी जाती है, उसी तरह तत्त्वसंरक्षणके लिये जल्प और वितण्डामें काँटेके समान छल, जाति आदि असत् उपायोंका अवलम्बन लेना भी अनुचित नहीं है / ४जनता मूढ़ और गतानुगतिक होती है। वह दुष्ट वादीके 1. 'भावान्तरविनिर्मुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् / अभावः सम्मतस्तस्य हेतोः किन्न समुद्भवः ?' ---उद्धृत, प्रमेयक० पृ० 160 / 2. न्यायसू० 1 / 2 / 1 / 3. न्यायसू० 1 / 2 / 2,3 / 4. “गतानुगतिको लोकः कुमार्ग तत्प्रतारितः / मागादिति छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः ॥”-यायमं० पृ० 11 . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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