________________ 256 जैनदर्शन १भावरूप प्रमेयके लिये जैसे भावात्मक प्रमाण होता है उसी तरह अभावरूप प्रमेयके लिये अभावरूप प्रमाणकी ही आवश्यकता है / २वस्तु सत् और असत् उभयरूप है। इनमें इन्द्रिय आदिके द्वारा सदंशका ग्रहण हो जानेपर भी असदंशके ज्ञानके लिये अभावप्रमाण अपेक्षित होता है। जिस पदार्थका निषेध करना है उसका स्मरण, जहाँ निषेध करना है उसका ग्रहण होनेपर मनसे ही जो 'नास्ति' ज्ञान होता है वह अभाव है। जिस वस्तुरूपमें सद्भावके ग्राहक पाँच प्रमाणोंकी प्रवृत्ति नहीं होती उसमें अभाव बोधके लिये अभावप्रमाण प्रवृत्ति करता है। ५अभाव यदि न माना जाय तो प्रागभावादिमूलक समस्त व्यवहार नष्ट हो जायगे। वस्तुकी परस्पर प्रतिनियत रूपमें स्थिति अभावके अधीन है। दूधमें दहीका अभाव प्रागभाव है। दही में दूधका अभाव प्रध्वंसाभाव है / घटमें पटका अभाव अन्योन्याभाव या इतरेतराभाव है और खरविषाणका अभाव अत्यन्ताभाव है। किन्तु वस्तु उभयात्मक है, इसमें विवाद नहीं है, पर अभावांश भी वस्तुका धर्म होनेसे यथासंभव प्रत्यक्ष, प्रत्यभिज्ञान और अनुमान आदि प्रमाणोंसे ही गृहीत हो जाता है। भूतल और घटको ‘सघट भूतलम्' इस एक प्रत्यक्षने जाना था। पीछे शुद्ध भूतलको जाननेवाला प्रत्यक्ष ही घटाभावको ग्रहण कर लेता है, क्योंकि घटाभाव शुद्धभूतलादि रूप ही तो है। अथवा 'यह वही भूतल है जो पहले घटसहित था' इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान भी अभावको ग्रहण कर सकता है / अनुमानके प्रकरणमें उपलब्धि और अनुपलब्धिरूप अनेक हेतुओंके उदाहरण दिये गये हैं जो अभावोंके ग्राहक होते हैं / यह कोई नियम नहीं है कि भावात्मक प्रमेयके लिए भावरूप प्रमाण और अभावात्मक प्रमेयके लिए अभावात्मक प्रमाण ही माना 1. 'मेयो यद्वदभावो हि मानमप्येवमिष्यताम् / भावात्मके यथा मेये नाभावस्य प्रमाणता // तथैवाभावमेयेऽपि न भावस्य प्रमाणता।" -मो० श्लो० अभाव० श्लो० 45/46 / 2. मी० श्लो० अभाव० श्लो० 12-14 / / 3. गृहीत्का वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् / मानसं नास्तिताशानं जायते अक्षानपेक्षया / ' -मी० श्लो० अभाव० श्लो० 27 / 4. मी० श्लो० अभाव० श्लो० 1 / 5. मी० श्लो० अभाव० श्लो० 7 / 6. मी० श्लो० अभा० श्लो० 2-4 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org