________________ 262 जैनदर्शन इनकी दृष्टिमें भी अपराध है। यह सब लिखकर भी अन्तमें उनने सूचित किया है कि स्वपक्ष-सिद्धि और परपक्ष-निराकरण ही जय-पराजयकी व्यवस्थाके आधार होना चाहिये। ____ आचार्य अकलंकदेव असाधनांग वचन तथा अदोषोद्भावनके झगड़ेको भी पसन्द नहीं करते / 'त्रिरूपको साधनांग माना जाय, पंचरूपको नहीं, किसको दोष माना जाय, किसको नहीं' यह निर्णय स्वयं एक शास्त्रार्थका विषय हो जाता है / शास्त्रार्थ जब बौद्ध, नैयायिक और जैनोंके बीच चलते हैं, जो क्रमशः त्रिरूपवादी, पंचरूपवादी और एकरूपवादी हैं तब हरएक दूसरेकी अपेक्षा असाधनांगवादी हो जाता है / ऐसी अवस्थामें शास्त्रार्थके नियम स्वयं ही शास्त्रार्थके विषय बन जाते हैं। अतः उन्होंने बताया कि वादीका काम है कि वह अविनाभावी साधनसे स्वपक्षकी सिद्धि करे और परपक्षका निराकरण करे / प्रतिवादीका कार्य है कि वह वादीके स्थापित पक्षमें यथार्थ दूषण दे और अपने पक्षकी सिद्धि भी करे / इस तरह स्वपक्षसिद्धि और परपक्षका निराकरण ही बिना किसी लागलपेटके जय और पराजयके आधार होने चाहिये / इसीमें सत्य, अहिंसा और न्यायको सुरक्षा है / स्वपक्षकी सिद्धि करनेवाला यदि कुछ अधिक भी बोल जाय तो भी कोई हानि नहीं है / "स्वपक्षं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि दोषाभावात्, लोकवत्' अर्थात् अपने पक्षको सिद्ध करके यदि कोई नाचता भी है तो भी कोई दोष नहीं है। प्रतिवादी यदि सीधे २विरुद्ध हेत्वाभासका उद्भावन करता है तो उसे स्वतन्त्र रूपसे पक्षकी सिद्धि करना आवश्यक नहीं है; क्योंकि वादीके हेतुको विरुद्ध कहनेसे प्रतिवादीका पक्ष स्वतः सिद्ध हो जाता है। असिद्धादि हेत्वाभासोंके उद्भावन करनेपर तो प्रतिवादीको अपने पक्षकी सिद्धि करना भी अनिवार्य है। स्वपक्षकी सिद्धि नहीं करनेवाला शास्त्रार्थ के नियमोंके अनुसार चलनेपर भी किसी भी हालतमें जयका भागी नहीं हो सकता। ____ इसका निष्कर्ष यह है कि नैयायिकके मतसे छल आदिका प्रयोग करके अपने पक्षकी सिद्धि किये बिना ही सच्चे साधन बोलनेवाले भी वादीको प्रतिवादी जीत सकता है। बौद्ध परम्परामें छलादिका प्रयोग वर्ण्य है, फिर भी यदि वादी असाधनांगवचन और प्रतिवादी अदोषोद्भावन करता है तो उनका पराजय होता 1. "तदुक्तम्-स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः। नासाधनाङ्गवचनं नादोषोद्भाबनं द्वयोः ॥”–उद्धृत अष्टसह० पृ० 87 / 2. “अकलङ्कोऽप्यभ्यधात्-विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः / आभासान्तरमुद्भाव्य पक्षसिद्धिमपेक्षते // " -त० श्लो० पृ० 280 / रत्नाकरावतारिका पृ० 1141 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org