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________________ प्रमाणमीमांसा - 253 ही होगा', क्योंकि अग्निके अंगारोंमें धुंआ नहीं पाया जाता। 'व्यापक 'तदतत्' अर्थात् हेतुके सद्भाव और हेतुके अभाव, दोनों स्थलोंमें मिलता है जब कि व्याप्य केवल तनिष्ठ अर्थात् साध्यके होने पर ही होता है, अभावमें कदापि नही / अतः साध्य व्यापक है और साधन व्याप्य / / ____ व्याप्ति२ व्याप्य और व्यापक दोमें रहती है। अतः जब व्यापकके धर्मरूपसे व्याप्तिकी विवक्षा होती है तब उसका कथन 'व्यापकका व्याप्यके होने पर होना हो, न होना कभी नहीं' इस रूपमें होता है और जब व्याप्यके धर्मरूपसे विवक्षित होती है तब 'व्याप्यका व्यापकके होने पर ही होना, अभावमें कभी नहीं होना' इस रूप में वर्णन होता है। व्यापक गम्य होता है और व्याप्य गमक; क्यों कि व्याप्यके होने पर व्यापकका पाया जाना निश्चित है, परन्तु व्यापकके होने पर व्याप्यका अवश्य ही होना निश्चित नहीं है, वह हो भी और न भी हो / व्यापक अधिकदेशवर्ती होता है जब कि व्याप्य अल्पक्षेत्रवाला / यह व्यवस्था अन्वयव्याप्तिकी है। व्यतिरेकव्याप्तिमें साध्याभाव व्याप्य होता है और साधनाभाव व्यापक / जहाँ-जहाँ साध्यका अभाव होगा वहाँ-वहाँ साधनका अभाव अवश्य होगा अर्थात् साध्याभावको साधनाभावने व्याप्त किया है / पर जहाँ साधनाभाव होगा वहाँ साध्यके अभावका कोई नियम नहीं है; क्योंकि निर्धूम स्थलमें भी अग्नि पाई जाती है। अतः व्यतिरेकव्याप्तिमें साध्याभाव व्याप्य अर्थात् गमक होता है और साधनाभाव व्यापक अर्थात् गम्य / अकस्मात् धूमदर्शनसे होनेवाला अग्निज्ञान प्रत्यक्ष नहीं : आ० प्रज्ञाकर3 अकस्मात् धुआँको देखकर होनेवाले अग्निके ज्ञानको अनुमान न मानकर प्रत्यक्ष ही मानते हैं। उनका विचार है कि जब अग्नि और धूमकी व्याप्ति पहले ग्रहण नहीं की गई है, तब अगृहीतव्याप्तिक पुरुषको होनेवाला अग्निज्ञान अनुमानकी कोटिमें नहीं आना चाहिये / किन्तु जब प्रत्यक्षका इन्द्रिय और पदार्थके सम्बन्धसे उत्पन्न होना निश्चित है, तब जो अग्नि परोक्ष है और जिसके साथ हमारी इन्द्रियोंका कोई सम्बन्ध नहीं है, उस अग्निका ज्ञान प्रत्यक्षकी 1. 'व्याप्तिापकस्य तत्र भाव एव, व्याप्यस्य च तत्रैव भावः / ' -प्रमाणवा० स्ववृ०३।१। 2. 'व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्टमेव च।' 3. 'अत्यन्ताभ्यासतस्तस्य झटित्येव तदर्थदृक् / अकस्माद् धूमतो वह्निप्रतीतिरिव देहिनाम् // ' -प्रमाणवार्तिकाल० 2 / 136 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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