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________________ 254 जैनदर्शन मर्यादामें कैसे आ सकता है ? यह ठीक है कि व्यक्तिने 'जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, अग्निके अभावमें धूम कभी नहीं होता' इस प्रकार स्पष्टरूपसे व्याप्तिका निश्चय नहीं किया है किन्तु अनेक बार अग्नि और धूमको देखनेके बाद उसके मनमें अग्नि और धूमके सम्बन्धके सूक्ष्म संस्कार अवश्य थे और वे ही सूक्ष्म संस्कार अचानक धुआँको देखकर उबुद्ध होते हैं और अग्निका ज्ञान करा देते हैं। यहाँ धूमका ही तो प्रत्यक्ष है, अग्नि तो सामने है ही नहीं। अतः इस परोक्ष अग्निज्ञानको सामान्यतया श्रुतमें स्थान दिया जा सकता है, क्योंकि इसमें एक अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान किया गया है। इसे अनुमान कहने में भी कोई विशेष बाधा नहीं है, क्योंकि व्याप्तिके सूक्ष्म संस्कार उसके मनपर अंकित थे ही। फिर यह ज्ञान अविशद है, अतः प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। अर्थापति अनुमानमें अन्तर्भूत है : मीमांसक' अर्थापत्तिको पृथक् प्रमाण मानते हैं। किसी दृष्ट या श्रुत पदार्थसे वह जिसके बिना नहीं होता उस अविनाभावी अदृष्ट अर्थकी कल्पना करना अर्थापत्ति है। इससे अतीन्द्रिय शक्ति आदि पदार्थोंका ज्ञान किया जाता है। यह छह प्रकारकी है (1) प्रत्यक्षपूर्विका अर्थापत्ति-प्रत्यक्षसे ज्ञात दाहके द्वारा अग्निमें दहनशक्तिकी कल्पना करना। शक्ति प्रत्यक्षसे नहीं जानी जा सकती; क्योंकि वह अतीन्द्रिय है। (2) अनुमानपूर्विका अर्थापत्ति-एक देशसे दूसरे देशको प्राप्त होना रूप हेतुसे सूर्यमें गतिका अनुमान करके फिर उस गतिसे सूर्यमें गमनशक्तिकी कल्पना करना। ( 3 ) ४श्रुतार्थापत्ति-'देवदत्त दिनको नहीं खाता, फिर भी मोटा है' इस वाक्यको सुनकर उसके रात्रिभोजनका ज्ञान करना। (4) ५उपमानार्थापत्ति-गवयसे उपमित गौमें उस ज्ञानके विषय होनेकी शक्तिकी कल्पना करना। (5) अर्थापत्तिपूर्विका अर्थापत्ति-'शब्द वाचकशक्तियुक्त है, अन्यथा उससे अर्थप्रतीति नहीं हो सकती। इस अर्थापत्तिसे सिद्ध वाचकशक्तिसे शब्दमें 1. मी० श्लो० अर्था० श्लो० 1 / 2. मी० स्लो० अर्था० श्लो० 3 / 3. मी० श्लो० अर्था० श्लो० 3 / 4. मी० श्लो० अर्था० श्लो० 51 / 5, मी० श्लो० अर्था० श्लो० 4 / 6. मो० श्लो० अर्था० श्लो०५-८ / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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