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________________ प्रमाणमीमांसा 251 परन्तु जैनताकिक' अकलंकदेव कहते हैं कि दृश्यत्वका अर्थ केवल प्रत्यक्षविषयत्व ही नहीं है, किन्तु उसका अर्थ है प्रमाणविषयत्व / जो वस्तु जिस प्रमाणका विषय होती है, वह वस्तु यदि उसी प्रमाणसे उपलब्ध न हो तो उसका अभाव सिद्ध हो जाना चाहिये। उपलम्भका अर्थ प्रमाणसामान्य है। देखो, मृत शरीरमें स्वभावसे अतीन्द्रिय परचैतन्यका अभाव भी हम लोग सिद्ध करते हैं। यहाँ परचैतन्यमें प्रत्यक्षविषयत्वरूप दृश्यत्व तो नहीं है, क्योंकि परचैतन्य कभी भी हमारे प्रत्यक्षका विषय नहीं होता। हम तो वचन, उष्णता, श्वासोच्छ्वास या आकारविशेष आदिके द्वारा शरीरमें मात्र उसका अनुमान करते हैं / अतः उन्हीं वचनादिके अभावसे चैतन्यका अभाव सिद्ध होना चाहिये। यदि अदृश्यानुपलब्धिको संशयहेतु मानते हैं; तो आत्माकी सत्ता भी कैसे सिद्ध की जा सकेगी ? आत्मादि अदृश्य पदार्थ अनुमानके विषय होते हैं / अतः यदि हम उनके साधक चिह्नोंके अभावमें उनकी अनुमानसे भी उपलब्धि न कर सकें तो ही उनका अभाव मानना चाहिए / हाँ, जिन पदार्थोंको हम किसी भी प्रमाणसे नहीं जान सकते, उनका अभाव हम अनुपलब्धिसे नहीं कर सकते / यदि परशरीरमें चैतन्यका अभाव हम अनुपलब्धिसे न जान सकें और संशय ही बना रहे, तो मृतशरीरका दाह करना कठिन हो जायगा और दाह करनेवालोंको सन्देहमें पातकी बनना पड़ेगा। संसारके समस्त गुरुशिष्यभाव, लेन-देन आदि व्यवहार, अतीन्द्रिय चैतन्यका आकृतिविशेष आदिसे सद्भाव मानकर ही चलते हैं और उनके अभावमें चैतन्यका अभाव जानकर मृतकमें वे व्यवहार नहीं किये जाते / तात्पर्य यह कि जिस पदार्थको हम जिन-जिन प्रमाणोंसे जानते हैं उस वस्तुका उन-उन प्रमाणोंकी निवृत्ति होनेपर अवश्य ही अभाव मानना चाहिए / अतः दृश्यत्वका संकुचित अर्थ-मात्र प्रत्यक्ष त्व न करके 'प्रमाणविषयत्व' करना ही उचित है और व्यवहार्य भी है। उदाहरणादि : यह पहले लिखा जा चुका है कि अव्युत्पन्न श्रोताके लिए उदाहरण, उपनय और निगमन इन अवयवोंकी भी सार्थकता है। स्वार्थानुमानमें भी जो व्यक्ति व्याप्तिको भूल गया है, उसे व्याप्तिस्मरणके लिये कदाचित् उदाहरणका उपयोग हो भी सकता है, पर व्युत्पन्न व्यक्तिको उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। व्याप्तिकी सम्प्रतिपत्ति अर्थात वादी और प्रतिवादीकी समान प्रतीति जिस स्थलमें हो उस 1. 'अदृश्यानुपलम्भादभावासिद्धिरित्युक्तं परचैतयनिवृत्तावारेकापत्तेः, संस्कतृणां पातकित्वप्रसङ्गात् बहुलमप्रत्यक्षस्यापि रोगादेविनिवृत्तिनिर्णयात् / ' -अष्टश०, अष्टसह० पृ० 52 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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