SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 250 जैनदर्शन विधि और निषेध साधक उपलब्धियों तथा अनुपलब्धियोंको इन्हींमें अन्तर्भूत किया है। अकलंकदेवने 'प्रमाणसंग्रह' (पृ० 104-5 ) सद्भावसाधक छह और अनुपलब्धियोंका कंठोक्त वर्णन करके शेषका इन्हींमें अन्तर्भाव करनेका संकेत किया है। परम्परासे संभावित हेतु-कार्यके कार्य, कारणके कारण, कारणके विरोधी आदि हेतुओंका इन्हींमें अन्तर्भाव हो जाता है / अदृश्थानुपलब्धि भी अभावसाधिका : बौद्ध' दृश्यानुपलब्धिसे ही अभावकी सिद्धि मानते हैं। दृश्यसे उनका तात्पर्य ऐसी वस्तुसे है कि जो वस्तु सूक्ष्म, अन्तरित या दूरवर्ती न हो तथा जो प्रत्यक्षका विषय हो सकती हो। ऐसी वस्तु उपलब्धिके समस्त कारण मिलनेपर भी यदि उपलब्ध न हो तो उसका अभाव समझना चाहिए। सूक्ष्म आदि विप्रकृष्ट पदार्थोंमें हम लोगोंके प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकी निवृत्ति होनेपर भी उनका अभाव नहीं होता। प्रमाणकी प्रवृत्तिसे प्रमेयका सद्भाव तो जाना जाता है, पर प्रमाणकी निवृत्तिसे प्रमेयका अभाव नहीं किया जा सकता / अतः विप्रकृष्ट विषयोंकी अनुपलब्धि संशयहेतु होनेसे अभावसाधक नहीं हो सकती / 2 वस्तुके दृश्यत्वका इतना ही अर्थ है कि उसके उपलम्भ करनेवाले समस्त करणोंकी समग्रता हो और वस्तुमें एक विशेष स्वभाव हो। घट और भूतल एकज्ञानसंसर्गी थे, जितने कारणोंसे भूतल दिखाई देता है उतने ही कारणोंसे घड़ा। अतः जब शुद्ध भूतल दिखाई दे रहा है तब यह तो मानना ही होगा कि वहाँ भूतलकी उपलब्धिकी वह सब सामग्री विद्यमान है जिससे घड़ा यदि होता तो वह भी अवश्य दिख जाता। तात्पर्य यह कि एकज्ञानसंसर्गी पदार्थान्तरकी उपलब्धि इस बातका प्रमाण है कि वहाँ उपलब्धिकी समस्त सामग्री है / घटमें उस सामग्रीके द्वारा प्रत्यक्ष होनेका स्वभाव भी है, क्योंकि यदि वहाँ घड़ा लाया जाय तो उसी सामग्रीसे वह अवश्य दिख जायगा। पिशाचादि या परमाणु आदि पदार्थोंमें वह स्वभावविशेष नहीं है, अतः सामग्रीकी पूर्णता रहनेपर भी उनका प्रत्यक्ष नहीं हो पाता। यहाँ सामग्रीकी पूर्णताका प्रमाण इसलिए नहीं दिया जा सकता कि उनका एकज्ञानसंसर्गी कोई पदार्थ उपलब्ध नहीं होता। इस दृश्यताको 'उपलब्धिलक्षणप्राप्त' शब्दसे भी कहते हैं। इस तरह बौद्ध दृश्यानुपलब्धिको गमक और अदृश्यानुलब्धिको संशयहेतु मानते हैं / 1. न्यायबिन्दु 2 / 28-30, 46 / 2. न्यायबिन्दु 2148-49 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy