________________ प्रमाणमीमांसा 249 व्यक्ति अभावव्यवहार नहीं करना चाहते उन्हें अभावव्यवहार करानेमें इसकी सार्थकता है। ( 2 ) अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि-यहाँ शीशम नहीं है; क्योंकि वृक्ष नहीं पाया जाता। ( 3 ) अविरुद्ध कार्यानुपलब्धियहाँपर अप्रतिबद्ध शक्तिशाली अग्नि नहीं है, क्योंकि धूम नहीं पाया जाता / यद्यपि साधारणतया कार्याभावसे कारणाभाव नहीं होता, पर ऐसे कारणका अभाव कार्य के अभावसे अवश्य किया जा सकता है जो नियमसे कार्यका उत्पादक होता है / ( 4 ) अविरुद्धकारणानुपलब्धि-यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि नहीं पायी जाती। (5 ) अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि-एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय नहीं होगा, क्योंकि अभी कृत्तिकाका उदय नहीं हुआ है। ( 6 ) अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि-एक मुहूर्त पहले भरणीका उदय नहीं हुआ, क्योंकि अभी कृत्तिकाका उदय नहीं है। (7) अविरुद्धसहचरानुपलब्धि-इस समतराजूका एक पलड़ा नीचा नहीं है, क्योंकि दूसरा पलड़ा ऊँचा नहीं पाया जाता। विधिसाधक तीन विरुद्धानुपलब्धियाँ'-- (1) विरुद्धकार्यानुपलब्धि-इस प्राणीमें कोई व्याधि है, क्योंकि इसकी चेष्टाएँ नीरोग व्यक्तिकी नहीं हैं। ( 2 ) विरुद्धकारणानुपलब्धि-इस प्राणीमें दुःख है, क्योंकि इष्टसंयोग नहीं देखा जाता। ( 3 ) विरुद्धस्वभावानुपलब्धि-वस्तु अनेकान्तात्मक है, क्योंकि एकान्त स्वरूप उपलब्ध नहीं होता। ___ इन अनुपलब्धियोंमें साध्यसे विरुद्धके कार्य, कारण आदिकी अनुपलब्धि बतायी गई है / हेतुओंका यह वर्गीकरण परीक्षामुखके आधारसे है। वादिदेवसूरिने 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार' ( 3 / 64 ) में विधिसाधक तीन अनुपलब्धियोंकी जगह पाँच अनुपलब्धियाँ बताई हैं तथा निषेधसाधक छह अनुपलब्धियोंकी जगह सात अनुपलब्धियाँ गिनाई हैं / आचार्य विद्यानन्द ने वैशेषिकोंक अभूत-भूतादि तीन प्रकारोंमें 'अभूत अभूतका' यह एक प्रकार और बढ़ाकर सभी 1. परीक्षामुख 381-84 / 2. प्रमाणपरीक्षा पृ० 72-74 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org