________________ 248 जैनदर्शन (3 ) अविरुद्धकारणोपलब्धि-यहाँ छाया है, क्योंकि छत्र है / ( 4 ) अविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि-एक मुहर्तके बाद शकट ( रोहिणी ) का उदय होगा, क्योंकि इस समय कृत्तिका का उदय हो रहा है / (5) अविरुद्धोत्तरचरोपलब्धि-एक मुहूर्त पहले भरणीका उदय हो चुका है, क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय हो रहा है। (6) अविरुद्धसहचरोपलब्धि-इस बिजौरेमें रूप है, क्योंकि रस पाया जाता है। इनमें अविरुद्धव्यापकोपलब्धि भेद इसलिये नहीं बताया कि व्यापक व्याप्यका ज्ञान नहीं कराता, क्योंकि वह उसके अभावमें भी पाया जाता है / प्रतिषेधको सिद्ध करनेवाली छह विरुद्धोपलब्धियाँ' ( 1 ) विरुद्धव्याप्योपलब्धि-यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता पायी जाती है। (2) विरुद्धकार्योपलब्धि-यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि धूप पाया जाता है। ( 3 ) विरुद्धकारणोपलब्धि-इस प्राणीमें सुख नहीं है, क्योंकि इसके हृदयमें शल्य है। (4) विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि-एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय नहीं होगा, क्योंकि इस समय रेवतीका उदय हो रहा है। (5) विरुद्धउत्तरचरोपलब्धि-एक मुहूर्त पहले भरणीका उदय नहीं हुआ, क्योंकि इस समय पुष्यका उदय हो रहा है। (6) विरुद्धसहचरोपलब्धि-इस दीवालमें उस तरफके हिस्सेका अभाव नहीं है, क्योंकि इस तरफका हिस्सा देखा जाता है। इन छह उपलब्धियोंमें प्रतिषेध साध्य है और जिसका प्रतिषेध किया जा रहा है उससे विरुद्धके व्याप्य, कार्य, कारण आदिकी उपलब्धि विवक्षित है। जैसे विरुद्ध कारणोपलब्धिमें सुखका प्रतिषेध साध्य है, तो सुखका विरोधी दुःख हुआ, उसके कारण हृदयशल्यको हेतु बनाया गया है। प्रतिषेधसाधक सात अविरुद्धानुपलब्धियाँ (1) अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि-इस भूतलपर घड़ा नहीं है, क्योंकि वह अनुपलब्ध है। यद्यपि यहाँ घटाभावका ज्ञान प्रत्यक्षसे ही हो जाता है, परन्तु जो 1. परीक्षामुख 366-72 / 2. परीक्षामुख 373-80 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org