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________________ 246 जैनदर्शन अपने साध्यके साथ तदुत्पत्ति सम्बन्ध होता है, स्वभावहेतुका तादात्म्य होता है और अनुपलब्धियोंमें भी तादात्म्यसम्बन्ध ही विवक्षित है। जैन तार्किकपरम्परामें अविनाभावको केवल तादात्म्य और तदुत्पत्तिमें ही नहीं बाँधा है, किन्तु उसका व्यापक क्षेत्र निश्चित किया है। अविनाभाव, सहभाव और क्रमभावमूलक होता है / सहभाव तादात्म्य प्रयुक्त भी हो सकता है और तादात्म्यके बिना भी / जैसे कि तराजूके एक पलड़ेका ऊपरको जाना और दूसरेका नीचेकी तरफ झुकना, इन दोनों में तादात्म्य न होकर भी सहभाव है / क्रमभाव कार्य-कारणभावमूलक भी होता है और कार्यकारणभावके बिना भी। जैसे कि कृत्तिकोदय और उसके एक मुहुर्तके बाद उदित होनेवाले शकटोदयमें परस्पर कार्यकारणभाव न होने पर भी नियत क्रमभाव है। अविनाभावके इसी व्यापक स्वरूपको आधार बनाकर जैन परम्परामें हेतुके स्वभाव, व्यापक, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये भेद किये हैं। हेतुके सामान्यतया दो भेद भी होते हैं २-एक उपलब्धिरूप और दूसरा अनुपलब्धिरूप / उपलब्धि, विधि और प्रतिषेध दोनोंको सिद्ध करती है / इसी तरह अनुपलब्धि भी / बौद्ध कार्य और स्वभाव हेतुको केवल विधिसाधक और अनुपलब्धि हेतुको मात्र प्रतिषेधसाधक मानते हैं, किन्तु आगे दिये जानेवाले उदाहरणोंसे यह स्पष्ट हो जायगा कि अनुपलब्धि और उपलब्धि दोनों ही हेतु विधि और प्रतिषेध दोनोंके साधक हैं। वैशेषिक संयोग और समवायको स्वतन्त्र मानते है, अतः एतन्निमित्तक संयोगी और समवायी ये दो हेतु उन्होंने स्वतन्त्र माने हैं; परन्तु इस प्रकारके भेद सहभावमूलक अविनाभावमें संगृहीत हो जाते हैं। वे या तो सहचरहेतुमें या स्वभावहेतुमें अन्तर्भूत हो जाते हैं / कारणहेतुका समर्थन : बौद्ध कारणहेतुको स्वीकार नहीं करते हैं। उनका कहना है कि 'कारण अवश्य ही कार्यको उत्पन्न करे' ऐसा नियम नहीं है। जो अन्तिम क्षणप्राप्त कारण नियमसे कार्यका उत्पादक है, उसके दूसरे क्षणमें ही कार्यका प्रत्यक्ष हो जाने वाला है, अतः उसका अनुमान निरर्थक है। किन्तु अँधेरेमें किसी फलके रसको चखकर तत्समानकालीन रूपका अनुमान कारणसे कार्यका अनुमान ही तो है, क्योंकि 1. परीक्षामुख 3 / 54 / 3. परीक्षामुख 3152 / / 2. 'अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ, एकः प्रतिषेधहेतुः / ' -न्यायबि० 2 / 16 / 3. 'न च कारणानि अवश्यं कार्यवन्ति भवन्ति ।'-न्यायवि० 2 / 46 / 4. 'रसादेकसामग्र्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित् कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्यापति बन्धकारणान्तरावैकल्ये।'-परीक्षामुख 3 / 55 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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