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________________ प्रमाणमीमांसा 245 क्योंकि वे अनुमेय हैं' यहाँ अनुमेयत्व हेतु पक्षभूत अदृष्टादिमें पाया जाता है, सपक्ष घटमें भी इसकी वृत्ति है, इसलिए पक्षधर्मत्व और सपक्षसत्त्व तो है, पर विपक्षव्यावृत्ति नहीं है; क्योंकि जगत्के समस्त पदार्थ पक्ष और सपक्षके अन्तर्गत आ गये हैं / जब कोई विपक्ष है ही नहीं तब व्यावृत्ति किससे हो? इस केवलान्वयी हेतुमें विपक्षव्यावृत्तिके सिवाय अन्य चार रूप पाये जाते हैं / 'जीवित शरीर आत्मासे युक्त है, क्योंकि उसमें प्राणादिमत्त-श्वासोच्छ्वास आदि पाये जाते हैं', यहाँ जीवित शरीर पक्ष है, सात्मकत्व साध्य है और प्राणादिमत्त्व हेतु है। यह पक्षभूत जीवित शरीरमें पाया जाता है और विपक्षभूत पत्थर आदिसे व्यावृत्त है, अतः इसमें पक्षधर्मत्व और विपक्षव्यावृत्ति तो पाई जाती है; किन्तु सपक्षसत्त्व नहीं है, क्योंकि जगत्के समस्त चेतन पदार्थोंका पक्षमें और अचेतन पदार्थोंका विपक्षमें अन्तर्भाव हो गया है, सपक्ष कोई बचता ही नहीं है / इस केवलव्यतिरेकी हेतुमें सपक्षसत्त्वके सिवाय अन्य चार रूप पाये जाते हैं। स्वयं नैयायिकों ने केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी हेतुओंमें चार-चार रूप स्वीकार करके चतुर्लक्षणको भी सद्हेतु माना है। इस तरह पञ्चरूपता इन हेतुओंमें अपने आप अव्याप्त सिद्ध हो जाती है। केवल एक अविनाभाव ही ऐसा है, जो समस्त सद्हेतुओंमें अनुपचरितरूपसे पाया जाता है और किसी भी हेत्वाभासमें इसकी सम्भावना नहीं की जा सकती। इसलिये जैनदर्शनने हेतुको ‘अन्यथानुपपत्ति' या अविनाभाव' रूपसे एकलक्षणवाला ही माना है। हेतु प्रकार : वैशेषिक सूत्रमें एक जगह ( 9 / 2 / 1 ) कार्य, कारण, संयोगी, समवायी और विरोधी इन पाँच प्रकारके लिंगोंका निर्देश है। अन्यत्र (3-11-23 ) अभूतभूतका, भूत-अभूतका और भूत-भूतका इस प्रकार तीन हेतुओंका वर्णन है / बौद्ध स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि इस तरह तीन प्रकारके हेतु मानते हैं / कार्यहेतुका 1. 'यद्यप्यविनाभावः पञ्चसु चतुर्पु वा रूपेषु लिङ्गस्य समाप्यते / ' -न्यायवा० ता० टी० पृ. 178 / "केवलान्वयसाधको हेतु: केवलान्वयो। अस्य च पक्षसत्त्वसपक्षसत्त्वाबाधितासत्पतिपक्षितत्वानि चत्वारि रूपाणि गमकत्वौपयिकानि / अन्वयव्यतिरेकिणस्तु हेतोर्विपक्षासत्त्वेन सह पञ्च / केवलव्यतिरेकिणः सपक्षसत्त्वव्यतिरेकेण चत्वारि / " -वैशे० उप० पृ० 17 / 2. 'अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनम् ।'-त० श्लो० 1 / 13 / 121 / 3. न्यायबिन्दु 2 / 12 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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