________________ 244 जैनदर्शन १"अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ? नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः // " -प्रमाणपरीक्षा पृष्ठ 72 / अर्थात् जहाँ ( कृत्तिकोदय आदि हेतुओंमें ) अन्यथानुपपन्नत्व-अविनाभाव है वहाँ पञ्चरूप न भी हों तो भी कोई हानि नहीं है, उनके माननेसे क्या लाभ ? और जहाँ ( मित्रातनयत्व आदि हेतुओंमें ) पञ्चरूप हैं और अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है, वहाँ पञ्चरूप माननेसे क्या ? वे व्यर्थ हैं। हेतूबिन्दूटीकामें इन पाँच रूपोंके अतिरिक्त छठवें 'ज्ञातत्व' स्वरूपको माननेवाले मतका उल्लेख पाया जाता है। यह उल्लेख सामान्यतया नैयायिक और मीमांसकका नाम लेकर किया गया है। पाँच रूपोंमें असत्प्रतिपक्षत्वका विवक्षितकसंख्यत्व शब्दसे निर्देश है। असत्प्रतिपक्ष अर्थात् जिसका कोई प्रतिपक्षी हेतु विद्यमान न हो, जो अप्रतिद्वन्द्वी हो और विवक्षितैक संख्यत्वका भी यही अर्थ है कि जिसकी एक संख्या हो अर्थात् जो अकेला हो, जिसका कोई प्रतिपक्षी न हो / षड्लक्षण हेतुमें ज्ञातत्वरूपके पृथक् कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि लिंग अज्ञात होकर साध्यका ज्ञान करा ही नहीं सकता। वह न केवल ज्ञात ही हो, किन्तु उसे अपने साध्यके साथ अविनाभावीरूपमें निश्चित भी होना चाहिये / तात्पर्य यह कि एक अविनाभावके होनेपर शेष रूप या तो निरर्थक हैं या उस अविनाभावके विस्तार मात्र हैं / बाधा और अविनाभावका विरोध है। यदि हेतु अपने साध्यके साथ अविनाभाव रखता है, तो बाधा कैसी ? और यदि बाधा है, तो अविनाभाव कैसा ? इनमें केवल एक 'विपक्षव्यावृत्ति' रूप ही ऐसा है, जो हेतुका असाधारण लक्षण हो सकता है। इसीका नाम अविनाभाव है। __ नैयायिक अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी इस तरह तीन प्रकारके हेतु मानते हैं / 'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह कृतक है' इस अनुमानमें कृतकत्व हेतु सपक्षभूत अनित्य घटमें पाया जाता है और आकाश आदि नित्य विपक्षोंसे व्यावृत्त रहता है और पक्ष में इसका रहना निश्चित है, अतः यह अन्वयव्यतिरेकी है। इसमें पञ्चरूपता विद्यमान है। 'अदृष्ट आदि किसीके प्रत्यक्ष हैं, 1. 'अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशङ्कते।' -तत्त्वसं० पं० श्लो० 1364 / 2. 'पडलक्षणो हेतुरित्यपरे नैयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते तथा विवक्षितैकसंख्यत्वं रूपा न्तरम्-एका संख्या यस्य हेतुद्रव्यस्य तदेकसंख्यं यद्य कसंख्यावच्छिन्नायां प्रतिहेतु रहितायां तथा ज्ञातत्वं च ज्ञानविषयत्वम् / ' -हेतुबि० टी० पृ० 206 / 3. 'बाधाविनाभावयोर्विरोधात् ।'-हेतुबि० परि० 4 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org