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________________ प्रमाणमीमांसा 243 जिसका अविनाभाव निश्चित है उसके साध्यमें प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधा ही नहीं आ सकती। फिर बाधित तो साध्य ही नहीं हो सकता; क्योंकि साध्यके लक्षणमें 'अबाधित' पद पड़ा हुआ है। जो बाधित होगा वह साध्याभास होकर अनुमानको आगे बढ़ने ही न देगा। इसी तरह जिस हेतुका अपने साध्यके साथ समग्र अविनाभाव है, उसका तुल्यबलशाली प्रतिपक्षी प्रतिहेतु सम्भव ही नहीं है, जिसके वारण करनेके लिए असत्प्रतिपक्षत्वको हेतुका स्वरूप माना जाय / निश्चित अविनाभाव न होनेसे 'गर्भमें आया हुआ मित्राका पुत्र श्याम होगा, क्योंकि वह मित्राका पुत्र है जैसे कि उसके अन्य श्याम पुत्र' इस अनुमानमें त्रिरूपता होनेपर भी सत्यता नहीं है। मित्रापुत्रत्व हेतु गर्भस्थ पुत्रमें है, अतः पक्षधर्मत्व मिल गया, सपक्ष भूत अन्य पुत्रोंमें पाया जाता है, अतः सपक्षसत्त्व भी सिद्ध है, विपक्षभूत गोरे चैत्रके पुत्रोंसे वह व्यावृत्त है, अतः सामान्यतया विपक्षव्यावृत्ति भी है। मित्रापुत्रके श्यामत्वमें कोई बाधा नहीं है और समान बलवाला कोई प्रतिपक्षी हेतु नहीं है। इस तरह इस मित्रापुत्रत्व हेतुमें त्रैरूप और पांचरूप्य होनेपर भी सत्यता नहीं है। क्योंकि मित्रापुत्रत्वका श्यामत्वके साथ कोई अविनाभाव नहीं है। अविनाभाव इसलिए नहीं है कि उसका श्यामत्वके साथ सहभाव या क्रमभाव नियम सही है / श्यामत्वका कारण है उसके उत्पादक नामकर्मका उदय और मित्राका गर्भ अवस्थामें हरी पत्रशाक आदिका खाना / अतः जब मित्रापुत्रत्वका श्यामत्वके साथ किसी निमित्तक अविनाभाव नहीं है और विपक्षभूत गौरत्वकी भी वहाँ सम्भावना की जा सकती है, तब वह सच्चा हेतु नहीं हो सकता, परन्तु त्रैरूप्य और पाँचरूप्यं उसमें अवश्य पाये जाते हैं। कृत्तिकोदय आदिमें त्रैरूप्य और पाँचरूप्य न होनेपर भी अविनाभाव होनेके कारण सद्धेतुता है। अतः अविनाभाव ही एक मात्र हेतुका स्वरूप हो सकता है, त्रैरूप्य आदि नहीं। इस आशयका एक प्राचीन श्लोक मिलता है, जिसे अकलंकदेवने न्याय विनिश्चय ( श्लो० 323 ) में शामिल किया है। तत्त्वसंग्रहपंजिकाके अनुसार यह श्लोक पात्रस्वामीका है। “अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ? नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ?" अर्थात् जहाँ अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव है वहाँ त्रैरूप्य माननेसे कोई लाभ नहीं और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ त्रैरूप्य मानना भी व्यर्थ है। ___ आचार्य विद्यानन्दने इसीकी छायासे पंचरूपका खंडन करनेवाला निम्नलिखित श्लोक रचा है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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