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________________ 242 जैनदर्शन त्रैरूप्यवादी बौद्ध त्रैरूप्यको स्वीकार करके अबाधितविषयत्वको पक्षके लक्षणसे ही अनुगत कर लेते हैं; क्योंकि पक्षके लक्षणमें 'प्रत्यक्षाद्यनिराकृत' पद दिया गया है। अपने साध्यके साथ निश्चित रूप्यवाले हेतुमें समबलवाले किसी प्रतिपक्षी हेतुकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती, अतः असत्प्रतिपक्षत्व अनावश्यक हो जाता है। इस तरह वे तीन रूपोंको हेतुका अत्यन्त आवश्यक स्वरूप मानते हैं और इसी त्रिरूप हेतुको साधनाङ्ग कहते हैं और इनकी न्यूनताको असाधनाङ्ग वचन कहकर निग्रहस्थानमें शामिल करते हैं / पक्षधर्मत्व असिद्धत्व दोषका परिहार करनेके लिये है, अपक्षसत्त्व विरुद्धत्वका निराकरण करनेके लिए तथा विपक्षव्यावत्ति अनैकान्तिक दोषकी व्यावृत्तिके लिए है। ___जैन दार्शनिकोंने प्रथमसे ही अन्यथानुपपत्ति या अविनाभावको ही हेतुके प्राणरूपसे पकड़ा है। सपक्षसत्त्व इसलिए आवश्यक नहीं है कि एक तो समस्त पक्षोंमें हेतुका होना अनिवार्य नहीं है। दूसरे सपक्ष में रहने या न रहनेसे हेतुतामें कोई अन्तर नहीं आता। केवलव्यतिरेकी हेतु सपक्षमें नहीं रहता, फिर भी सद्धेतु है। 'हेतुका साध्यके अभावमें नहीं ही पाया जाना' यह अन्यथानुपपत्ति, अन्य सब रूपोंकी व्यर्थता सिद्ध कर देती है। पक्षधर्मत्व भी आवश्यक नहीं है; क्योंकि अनेक हेतु ऐसे हैं जो पक्ष में नहीं पाये जाते, फिर भी अपने अविनाभावी साध्यका ज्ञान कराते हैं / जैसे 'रोहिणी नक्षत्र एक मुहूर्तके बाद उदित होगा, क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय है / ' यहाँ कृत्तिकाके उदय और एक मुहूर्त बाद होनेवाले शकटोदय ( रोहिणीके उदय ) में अविनाभाव है, वह अवश्य ही होगा; परन्तु कृत्तिकाका उदय रोहिणी नामक पक्षमें नहीं पाया जाता। अतः पक्षधर्मत्व ऐसा रूप नहीं है जो हेतुकी हेतुताके लिये अनिवार्य हो / २काल और आकाशको पक्ष बनाकर कृत्तिका और रोहिणीका सम्बन्ध बैठाना तो बुद्धिका अतिप्रसंग है / अतः केवल नियमवाली विपक्षव्यावृत्ति ही हेतुकी आत्मा है, इसके अभावमें वह हेतु ही नहीं रह सकता। सपक्षसत्त्व तो इसलिये माना जाता है कि हेतुका अविनाभाव किसी दृष्टान्तमें ग्रहण करना चाहिये या दिखाना चाहिए। परन्तु हेतु बहिर्व्याप्ति ( दृष्टान्तमें साध्यसाधनकी व्याप्ति ) के बलपर गमक नहीं होता। वह तो अन्तर्व्याप्ति ( पक्षमें साध्यसाधनकी व्याप्ति ) से ही सद्धेतु बनता है। 1. हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः / असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ॥'-प्रमाणवा० 3314 / 2. देखो, प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 3 / 1 / 3. प्रमाणसं० पृ० 104 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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