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________________ प्रमाणमीमांसा 241 अव्यवहार्य भी / हाँ, बालकोंकी व्युत्पत्तिके लिए उसकी उपयोगितासे कोई इनकार नहीं कर सकता। उपनय और निगमन तो केवल उपसंहार-वाक्य हैं, जिनकी अपनेमें कोई उपयोगिता नहीं है / धर्मीमें हेतु और साध्यके कथन मात्रसे ही उनकी सत्ता सिद्ध है। उनमें कोई संशय नहीं रहता। ___ वादिदेवसूरि ( स्याद्वादरत्नाकर पृ० 548 ) ने विशिष्ट अधिकारीके लिये बौद्धोंकी तरह केवल एक हेतुके प्रयोग करनेकी भी सम्मति प्रकट की है। परन्तु बौद्ध तो त्रिरूप हेतुके समर्थनमें पक्षधर्मत्वके बहाने प्रतिज्ञाके प्रतिपाद्य अर्थको कह जाते हैं, पर जैन तो त्रैरूप्य नहीं मानते, वे तो केवल अविनाभावको ही हेतुका स्वरूप मानते हैं, तब वे केवल हेतुका प्रयोग करके कैसे प्रतिज्ञाको गम्य बता सकेंगे ? अतः अनुमानप्रयोगकी समग्रताके लिए अविनाभावी हेतुवादी जैनको प्रतिज्ञा अपने शब्दोंसे कहनी ही चाहिए, अन्यथा साध्यधर्मके आधारका सन्देह कैसे हटेगा ? अत: जैनके मतसे सीधा अनुमानवाक्य इस प्रकारका होता है-'पर्वत अग्नि वाला है, धूमवाला होनेसे' 'सब अनेकान्तात्मक हैं, क्योंकि सत् हैं / ' पक्षमें हेतुका उपसंहार उपनय है और हेतुपूर्वक पक्षका वचन निगमन है। ये दोनों अवयव स्वतन्त्रभावसे किसी की सिद्धि नहीं करते / अतः लाघव, आवश्यकता और उपयोगिता सभी प्रकारसे प्रतिज्ञा और हेतु इन दोनों अवयवोंकी ही परार्थानुमानमें सार्थकता है। वादाधिकारी विद्वान् इनके प्रयोगसे ही उदाहरण आदिसे समझाये जानेवाले अर्थको स्वतः ही समझ सकते हैं / हेतुके स्वरूपको मोमांसा : हेतुका स्वरूप भी विभिन्न वादियोंने अनेक प्रकारसे माना है। नैयायिक' पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व इस प्रकार पंचरूपवाला हेतु मानते हैं। हेतुका पक्षमें रहना, समस्त सपक्षोंमें या किसी एक सपक्षमें रहना, किसी भी विपक्षमें नहीं पाया जाना, प्रत्यक्षादिसे साध्यका बाधित नहीं होना और तुल्यबलवाले किसी प्रतिपक्षी हेतुका नहीं होना ये पाँच बातें प्रत्येक सद्धेतुके लिए नितान्त आवश्यक हैं। इसका समर्थन उद्योतकरके न्यायवार्तिक ( 1 / 115 ) में देखा जाता है। प्रशस्तपादभाष्य में हेतुके त्रैरूप्यका ही निर्देश है। 1. न्यायवा० ता० टी० 11115 / 2. प्रश० कन्दली पृ० 300 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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