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________________ प्रमाणमीमांसा 239 मीमांसकोंका भी यही अभिप्राय है। मीमांसकोंकी उपनय पर्यन्त चार अवयव माननेकी परम्पराका उल्लेख भी जैनग्रन्थोंमें पूर्वपक्षरूपसे मिलता है / न्यायप्रवेश ( पृ० 1, 2) में पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीनका अवयव रूपसे उल्लेख मिलता है। पक्षप्रयोगको आवश्यकता : __ पक्षके प्रयोगको धर्मकीतिने असाधनाङ्गवचन कहकर निग्रहस्थानमें शामिल किया हैं / इनका कहना है कि हेतुके पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति ये तीन रूप हैं। अनुमानके प्रयोगके लिये हमें हेतुके इस त्रैरूप्यका कथन करना ही पर्याप्त है और त्रिरूप हेतु ही साध्यसिद्धि के लिये आवश्यक है। 'जो सत् है वह क्षणिक है, जैसे घड़ा, चूंकि सभी पदार्थ सत् हैं' यह हेतुका प्रयोग बौद्धके मतसे होता है / इसमें हेतुके साथ साध्यकी व्याप्ति दिखाकर पीछे उसकी पक्षधर्मता ( पक्षमें रहना ) बताई गई है / दूसरा प्रकार यह भी है कि 'सभी पदार्थ सत् हैं, जो सत् है वह क्षणिक है, जैसे घड़ा' इस प्रयोगमें पहले पक्षधर्मत्व दिखाकर पीछे व्याप्ति दिखाई गई है / तात्पर्य यह कि बौद्ध अपने हेतुके प्रयोगमें ही दृष्टान्त और उपनयको शामिल कर लेते हैं। वे हेतु, दृष्टान्त और उपनय इन तीन अवयवोंको प्रकारान्तरसे मान लेते हैं / जहाँ वे केवल हेतुके प्रयोगकी बात करते हैं वहाँ हेतुप्रयोगके पेटमें दृष्टान्त और उपनय पड़े ही हुए हैं। पक्षप्रयोग और निगमनको वे किसी भी तरह नहीं मानते; क्योंकि पक्षप्रयोग निरर्थक है और निगमन पिष्टपेषण है। जैन ताकिकों का कहना है कि शिष्योंको समझानेके लिये शास्त्रपद्धतिमें आप योग्यताभेदसे दो, तीन, चार और पाँच या इससे भी अधिक अवयव मान सकते हैं, पर वादकथामें, जहाँ विद्वानोंका ही अधिकार है, प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवयव कार्यकारी हैं / प्रतिज्ञा का प्रयोग किये बिना साध्यधर्मके आधारमें सन्देह बना रह सकता है / बिना प्रतिज्ञाके किसकी सिद्धि के लिये हेतु दिया जाता है ? फिर पक्षधर्मत्वप्रदर्शनके द्वारा प्रतिज्ञाको मान करके भी बौद्ध का उससे इनकार करना अतिबुद्धिमत्ता है। 1. प्रमेयरत्नमाला 3 / 37 / 2. वादन्याय पृ० 61 / / 3. 'विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः / '- प्रमाणवा० 1-28 / 4. 'बालव्युत्पत्त्यर्थ तत्त्रयोपगमे शास्त्र एत्रासौ न वादेऽनुपयोगात् / ' -~-परीक्षामुख 3-41 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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