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________________ 238 जैनदर्शन वाक्यको सुनकर जिस श्रोताने अग्नि और धूमकी व्याप्ति ग्रहण की है, उसे व्याप्तिका स्मरण होनेपर जो अग्निज्ञान उत्पन्न होता है, वह परार्थानुमान है। परोपदेशरूप वचनोंको तो परार्थानुमान उपचारसे ही कहते हैं, क्योंकि वचन अचेतन हैं, वे ज्ञानरूप मुख्य प्रमाण नहीं हो सकते / परार्थानुमानके दो अवयव : __ इस परार्थानुमानके प्रयोजक वाक्यके दो अवयव होते हैं-एक प्रतिज्ञा और दूसरा हेतु / धर्म और धर्मीके समुदायरूप पक्षके वचनको प्रतिज्ञा कहते हैं, जैसे 'यह पर्वत अग्निवाला है।' साध्यसे अविनाभाव रखनेवाले साधनके वचनको हेतु कहते हैं, जैसे 'धूमवाला होनेसे, या धूमवाला अन्यथा नहीं हो सकता' / हेतुके इन दो 'प्रयोगोंमें कोई अन्तर नहीं है। पहला कथन विधिरूपसे है और दूसरा निषेध रूपसे / 'अग्निके होनेपर ही धूम होता है' इसका ही अर्थ है कि 'अग्निके अभावमें नहीं होता।' दोनों प्रयोगोंमें अविनाभावी साधनका कथन है। अतः इनमेंसे किसी एकका ही प्रयोग करना चाहिये / __पक्ष और प्रतिज्ञा तथा साधन और हेतुमें वाच्य और वाचकका भेद है। पक्ष और साधन वाच्य हैं तथा प्रतिज्ञा और हेतु उनके वाचक शब्द / व्युत्पन्न श्रोताको प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेशसे परार्थानुमान उत्पन्न होता है / अवयवोंकी अन्य मान्यताएँ : ___परार्थानुमानके प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवयव हैं / परार्थानुमानके सम्बन्धमें पर्याप्त मतभेद हैं। नैयायिक प्रतिज्ञा, हेतू, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच अवयव मानते हैं / न्यायभाष्यमें ( 1 / 1 / 32) जिज्ञासा, संशय, शक्यप्राप्ति, प्रयोजन और संशयव्युदास इन पाँच अवयवोंका और भी अतिरिक्त कथन मिलता है / दशवैकालिकनियुक्ति ( गा० 137 ) में प्रकरणविभक्ति, हेतुविभक्ति आदि अन्य ही दस अवयवोंका उल्लेख है / पाँच अवयववाले वाक्यका प्रयोग इस प्रकार होता है-'पर्वत अग्निवाला है, धूमवाला होनेसे, जो-जो धूमवाला है वह-वह अग्निवाला होता है जैसे कि महानस, उसी तरह पर्वत भी धूमवाला है, इसलिये अग्निवाला है / ' सांख्य उपनय और निगमनके प्रयोगको आवश्यक नहीं मानते 3 / 1. 'हेतोस्तथोपपत्त्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा। द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति // ' -न्यायावतार श्लो० 17 / 2. 'प्रतिशाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः।' -न्यायसू० 131632 / 3. देखो सांख्यका० माठर वृ० पृ० 5 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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