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________________ प्रमाणमीमांसा 235 अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्तिसे नियन्त्रित नहीं : अविनाभाव ही अनुमानकी मूल धुरा है। सहभावनियम और क्रमभावनियमको अविनाभाव कहते हैं / सहभावी रूप, रस आदि तथा वृक्ष और शिशपा आदि व्याप्यव्यापकभूत पदार्थों में सहभावनियम होता है। नियत पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती कृत्तिकोदय और शकटोदयमें तथा कार्यकारणभूत अग्नि और धूम आदिमें क्रमभावनियम होता है। अविनाभावको केवल तादात्म्य और तदुत्पत्ति ( कार्यकारणभाव ) से ही नियन्त्रित नहीं कर सकते / जिनमें परस्पर तादाम्य नहीं है ऐसे रूपसे रसका अनुमान होता है तथा जिनमें परस्पर कार्यकारणसम्बन्ध नहीं है ऐसे कृत्तिकोदयको देखकर एक मुहूर्त बाद होने वाले शकटोदयका अनुमान किया जाता है / तात्पर्य यह कि जिनमें परस्पर तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं भी है, उन पदार्थोंमें नियत पूर्वोत्तरभाव यानी क्रमभाव होनेपर तथा नियत सहभाव होनेपर अनुमान हो सकता है। अतः अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्ति तक ही सीमित नहीं है। साधन : जिसका साध्यके साथ अविनाभाव निश्चित है, उसे साधन कहते हैं। अविनाभाव, अन्यथानुपपत्ति, व्याप्ति ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं और 'अन्यथानुपपत्तिरूपसे निश्चित होना' यही एकमात्र साधनका लक्षण हो सकता है / साध्य : शक्य, अभिप्रेत और अप्रसिद्धको साध्य कहते हैं। जो प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अबाधित होनेके कारण सिद्ध करनेके योग्य है, वह शक्य है। वादीको इष्ट होनेसे अभिप्रेत है और संदेहादियुक्त होनेके कारण असिद्ध है, वही वस्तु साध्य होती है। बौद्ध परम्परामें भी ईप्सित और इष्ट, प्रत्यक्षादि अविरुद्ध और प्रत्यक्षादि अनिराकृत ये विशेषण अभिप्रेत और शक्यके स्थानमें प्रयुक्त हुए हैं। अप्रसिद्ध या 1. “सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ।"-परीक्षामुख 3616 / 2. 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोलक्षणमीरितम् ।'-न्यायावतार श्लो० 22 / 'साधनं प्रकृताभावोऽनुपपन्नं '-प्रमाणसं० पृ० 102 / 3. 'साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धम् ।'-न्यायवि० श्लो० 172 / 4. 'स्वरूपेणैव स्वयमिष्टोऽनिराकृतः पक्ष इति ।'-न्यायवि० पृ० 79 / 'न्यायमुखप्रकरणे तु स्वयं साध्यत्वेनेप्सितः पक्षोऽविरुद्धार्थोऽनिराकृत इति पाठात् / -प्रमाणवार्तिकालं० पृ० 510 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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