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________________ जैनदर्शन असिद्ध विशेषण तो साध्य शब्दके अर्थसे ही फलित होता है। साध्यका अर्थ है-- सिद्ध करने योग्य अर्थात् असिद्ध / सिद्ध पदार्थका अनुमान व्यर्थ है / अनिष्ट तथा प्रत्यक्षादिबाधित पदार्थ साध्य नहीं हो सकते / केवल सिसाधयिषित (जिसके सिद्ध करनेकी इच्छा है ) अर्थको भी साध्य नहीं कह सकते; क्योंकि भ्रमवश अनिष्ट और बाधित पदार्थ भी सिसाधयिषा ( साधनेकी इच्छा ) के विषय बनाये जा सकते हैं, ऐसे पदार्थ साध्याभास हैं, साध्य नहीं। असिद्ध विशेषण प्रतिवादीकी अपेक्षासे है और इष्ट विशेषण वादीकी दृष्टिसे / १अनुमान प्रयोगके समय कहीं धर्म और कहीं धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य होता है / परन्तु व्याप्तिनिश्चयकालमें केवल धर्म ही साध्य होता है / अनुमानके भेद: __ इसके दो भेद हैं-एक स्वार्थानुमान और दूसरा परार्थानुमान / स्वयं निश्चित साधनके द्वारा होनेवाले साध्यके ज्ञानको स्वार्थानुमान कहते हैं, और अविनाभावी साध्यसाधनके वचनोंसे श्रोताको उत्पन्न होनेवाला साध्यज्ञान परार्थानुमान कहलाता है / यह परार्थानुमान उसी श्रोताको होता है, जिसने पहले व्याप्ति ग्रहण कर ली है / 2 वचनोंको परार्थानुमान तो इसलिए कह दिया जाता है कि वे वचन परबोधनको तैयार हुए वक्ताके ज्ञानके कार्य हैं और श्रोताके ज्ञानके कारण हैं, अतः कारणमें कार्यका और कार्यमें कारणका उपचार कर लिया जाता है। इसी उपचारसे वचन भी परार्थानुमानरूपसे व्यवहारमें आते हैं / वस्तुतः परार्थानुमान ज्ञानरूप ही है / वक्ताका ज्ञान भी जब श्रोताको समझानेके उन्मुख होता है तो उस कालमें वह परार्थानुमान हो जाता है / स्वार्थानुमानके अंग: अनुमानका यह स्वार्थ और परार्थ विभाग वैदिक, जैन और बौद्ध सभी परम्पराओंमें पाया जाता है। किन्तु प्रत्यक्षका भी स्वार्थ और परार्थरूपमें विभाजन केवल आ० सिद्धसेनके न्यायावतार ( श्लो० 11, 12) में ही है / स्वार्थानुमानके तीन अंग है-धर्मी, साध्य और साधन / साधन गमक होनेसे, साध्य गम्य होनेसे और धर्मी साध्य और साधनभूत धर्मोंका आधार होनेसे अंग है / विशेष आधारमें साध्यकी सिद्धि करना अनुमानका प्रयोजन है। केवल साध्य धर्मका निश्चय तो व्याप्तिके ग्रहणके समय ही हो जाता है। इसके पक्ष और हेतु ये दो 1. देखो, परीक्षामुख 3 / 20-27 / 2. 'तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् / ' -परीक्षामुख 3151 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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