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________________ 234 जैनदर्शन बाद स्मरण, सादृश्यप्रत्यभिज्ञान आदिको सहायतासे जो एक मानस विकल्प होता है, वही इस अविनाभावको ग्रहण करता है / इसीका नाम तर्क है / 4. अनुमान : साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं / लिङ्गग्रहण और व्याप्तिस्मरणके अनु-पीछे होनेवाला, मान-ज्ञान अनुमान कहलाता है। यह ज्ञान अविशद होनेसे परोक्ष है, पर अपने विषयमें अविसंवादी है और संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि समारोपोंका निराकरण करनेके कारण प्रमाण है। साधनसे साध्यका नियत ज्ञान अविनाभावके बलसे ही होता है। सर्वप्रथम साधनको देखकर पूर्वगृहीत अविनाभावका स्मरण होता है, फिर जिस साधनसे साध्यकी व्याप्ति ग्रहण की है, उस साधनके साथ वर्तमान साधनका सादृश्यप्रत्यभिज्ञान किया जाता है; तब साध्यका अनुमान होता है / यह मानस ज्ञान है। लिंगपरामर्श अनुमितिका कारण नहीं : ___ साध्यका ज्ञान ही साध्यसम्बन्धी अज्ञानकी निवृत्ति करनेके कारण अनुमितिमें कारण हो सकता है और वही अनुमान कहा जा सकता है, नैयायिक आदिके द्वारा माना गया लिंगपरामर्श नहीं; क्योंकि लिंगपरामर्शमें व्याप्तिका स्मरण और पक्षधर्मताज्ञान होता है अर्थात् 'धूम साधन अग्नि साध्यसे व्याप्त है और वह पर्वतमें है' इतना ज्ञान होता है। यह ज्ञान केवल साधन-सम्बन्धी अज्ञानको हटाता है, साध्यके अज्ञानको नहीं। अतः यह अनुमानकी सामग्री तो हो सकता है, स्वयं अनुमान नहीं / अनुमितिका अर्थ है अनुमेय-सम्बन्धी अज्ञानको हटाकर अनुमेयार्थका ज्ञान / सो इसमें साधकतम करण तो साक्षात् साध्यज्ञान ही हो सकता हैं / जिस प्रकार अज्ञात भी चक्षु अपनी योग्यतासे रूपज्ञान उत्पन्न कर देती है उस प्रकार साधन अज्ञात रहकर साध्यज्ञान नहीं करा सकता किन्तु उसका साधनरूपसे ज्ञान होना आवश्यक है / साधनरूपसे ज्ञानका अर्थ है-साध्यके साथ उसके अविनाभावका निश्चय ! अनिश्चित साधन मात्र अपने स्वरूप या योग्यतासे साध्यज्ञान नहीं करा सकता, अतः उसका अविनाभाव निश्चित ही होना चाहिए / यह निश्चय अनुमितिके समय अपेक्षित होता है। अज्ञायमान धूम तो अग्निका ज्ञान करा ही नहीं सकता, अन्यथा सुप्त और मूच्छित आदिको या जिनने आजतक धूमका ज्ञान ही नहीं किया है, उन्हें भी अग्निज्ञान हो जाना चाहिए। 1. “साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानं..."-न्यायवि० श्लो० 167 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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